विचार

मन का माना मर गया, मन को मारा तर गया – डॉ. निर्मल जैन

बचपन में हमारा मन स्कूल जाने को नहीं कियाकरीब-करीब हम सभी लोग पहली बार रो-रो कर ही स्कूल गए। फिर भी मां-बाप ने हमें कठोरता से स्कूल भेजा। तब ऐसा करके क्या वह हमारा अहित चाहते थे। मां-बाप यह सख्ती इसलिए करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बच्चा जितना रो-रो कर स्कूल जाता है वहां से सीखने के बाद उतना ही हंस-हंस कर वापस आएगा और अपना जीवन संभालेगा।

           दूध नहीं पीने वाले बच्चे को मां गाल पर थप्पड़ मार कर दूध पिलाती है। तो क्या बच्चे के साथ मां की कोई दुश्मनी होती है। मां जानती है कि अगर बच्चा दूध नहीं पिएगा तो उसका शरीर दुर्बल हो जाएगा और यह आगे कोई तरक्की नहीं कर पाएगा। मां ने अगर चांटा मारकर समय पर दूध और खाने को विवश न किया होता तो क्या हमारा तनमन इतना बलिष्ठ और स्वस्थ होता। अगर हम उनकी न मानकर स्कूल न जातेअगर हमारी आंखों के आंसू देख कर हमारे मां-बाप ने स्कूल न भेजा होता तो क्या हम वह सब पा सकते जो आज हमारे पास है। अनुशासन किसी बच्चे के जोश को तोड़ कर आधा नहीं करता लेकिन इसकी कमी कम से कम मातापिता के ह्रदय को तोड़ कर आधा कर देती है

             एक कहावत है- जिसने मन का मानावह मर गया और जिसने मन को मारा वह तर गया। मन हमेशा आसान और सरल बातों से प्रभावित होता है और वही करना चाहता है। लेकिन हमारे यह उपकारीमाता-पिताहमारे गुरुहमारा विद्यालयसमाज या शासन-व्यवस्था सभी हमें अपने मन की उन सब बातों को करने से रोकना चाहते हैं जो हमारे लिए हितकर नहीं है। अपने मष्तिष्क को नियंत्रित कीजिये नहीं तो आपका मष्तिष्क आपको नियंत्रित करने लगेगा।

          अगर हम खुद को अनुशासित नहीं करेंगे तो हमारा ये काम दुनिया करेगी  विलियम फेदर 

            जीवन की यात्रा शुरू करते समय आगे की राह हमारे लिए रहस्य होती है। हमको रोकने-टोकने वाले यह सभीरास्तों पर लगे उन्हीं साइन बोर्डों जैसे हैं जो हमें अपनी सही-गलत मंजिल का पता देते हैं। भटकने से बचाते हैं। उन साइन बोर्डों पर तो हमें कभी गुस्सा नहीं आता। हम खुश होते हैं कि हम भटके नहीं। तब हम इन शुभचिंतकों के उपकारी मार्ग-दर्शन सेउनकी अनुशासनात्मक कार्यवाही से क्रोधित क्यों हो जाते हैं। अपना अपमान समझकर क्यों विद्रोह पर उतर आते हैं।

         हमारे लोकोपकारी संत हर पल हमें अवगुणों से दूर रहने के लिए सावधान करते हैं। इसमें उनका अपना निजि कोई स्वार्थ नहीं। हम मानवता के मार्ग से कहीं भटक न जाएँ केवल इसलिए अपना कर्तव्य निभाते हैं। शासन-प्रशासन द्वारा विधि-विधान के अंतर्गत की गई दंडात्मक कार्यवाही का तात्पर्य किसी को पीड़ित करना नहीं होता। अपितु वो तो उस दंड का भय दिखा कर ऐसे कुकृत्य करने के प्रति सावधान करते हैं।

             यह हमारे उपकारी हमें दुखी करने को नहीं सुझाते हैं। वे तो हमें चेतावनी देते हैं कि अगर हमने गलत मार्ग को नहीं छोड़ा, अपना आचरण नहीं बदला तो उसके परिणाम न केवल हमारे खुद के लिए बल्कि समाज और देश के लिए भी गंभीर हो सकते हैं। अगर हम जीवन की अनदेखी राहों में भटक गए तो फिर पछताने के अलावा कुछ भी शेष नहीं रहता।  हम सभी को दो चीजें बर्दाश्त करनी पड़ती हैं या तो अनुशासन का कष्ट या पछतावे और मायूसी की पीड़ा। क्योंकि समय के चक्र में रिवर्स गियर नहीं होता है।


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