लेखक-डॉ. निर्मल जैन
हम में से हर कोई सब को व्यवस्थित देखना चाहते हैं। लेकिन स्वयं को व्यवस्थित करने के प्रति उदासीन रहते हैं। ऐसा इसलिए कि औरों को अनुशासन में रखना आसान होता है पर स्वयं को अनुशासित करना बहुत कठिन तो है ही बहुत बड़ी चुनौती भी है।
स्व-अनुशासन! अनुशास्यते नैन।अर्थात स्वयं का स्वयं पर शासन। खुद पर आत्म-नियंत्रण। अपने ऊपर स्वयं शासन करना तथा शासन के अनुसार अपने जीवन को चलाना। ऊर्जा को बड़ी उपलब्धियों को हासिल करने की दिशा में प्रवाहित और व्यवस्थित करना। व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक या आध्यात्मिक जीवन हर एक का शुभ-अवस्थित होना जीवन की महान साधना है। अपने आपको शुभ में स्थित करने का तात्पर्य है कि अपनी जीवन-चर्या को समय के अनुरूप निश्चित करना। समय का आदर करते हुए कार्यों का नियोजन करना ही स्व-प्रबंधन है।
जिनदर्शन के अनुसार –सारी महिमा वैचारिक तथा मानसिकता की है। हमारी हर कार्य-सूची, हर योजना के पीछे एक प्रबंधन, एक तरीका, एक बेहतर मनोवैज्ञानिक सोच तथा सकारात्मक नज़रिया जरूर होना चाहिए। मानव की शोभा रूप सौंदर्य अथवा भोगों से नहीं संयम से है। सत्य जीवन का लक्ष्य है, संयम जीवन की पद्धति है और सेवा जीवन का कार्य है। संयम के बिना जीव संतुलित रह ही नहीं सकता।
योजनाबद्ध काम करने से समय और ऊर्जा दोनों बचती है। “शेड्यूल” भी इतना व्यस्त नहीं होना चाहिए कि आराम का कोई समय ही न मिले। लेकिन नियमों की अनदेखी करते रहना हमारी आदत नहीं बन जाना चाहिए। ऐसा होने पर न सिर्फ आत्म-नियंत्रण खत्म होता है बल्कि आत्म-विश्वास भी कमजोर पड़ जाता है। हालात कितने अच्छे या बुरे हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अपने आप को बहुत खुश होने या बहुत दुखी होने से दूर रखना और हमेशा सामान्य स्थिति में होना ही स्व-नियंत्रण का उच्चतम रूप है।
भूख का समाधान भोजन, प्यास का समाधान पानी और थकान का समाधान विश्राम है। उसी तरह हर प्रकार की अशांति,उद्गिनता का समाधान है तो केवल आत्म-संयम अर्थात अपने को अनुशासन में रखना। हम स्वभावत: परिणामों की परवाह किये बिना अपने मन मुताबिक कामों को करना पसंद करते हैं। यूं तो हमारा मन ही हमारा सबसे अच्छा मित्र है। पर इस मन का भटकाव ही हमारी सफलता का सबसे बड़ा शत्रु है। आत्मनियंत्रण ही वो शक्ति है जिससे हम सफलता के सबसे बड़े दुश्मन मन पर जीत हासिल कर सकते हैं।
जिस व्यक्ति के अंदर आत्मनियंत्रण की शक्ति होती है सफलताएँ स्वयं ही आगे बढ़कर उसके चरण चूमती हैँ। – महाकवि गेटे
हमारी इंद्रियां और मन नियंत्रण की रेखा पसंद नहीं करते वह स्वतंत्रता चाहती हैं। इसीलिए असंयमित, अनियंत्रित मन तथा इंद्रियों के दुष्परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं। सुविधाओं में रहते हुए भी हर कोई अशांत व उद्गिन है, असंतुष्ट है। हर प्राकृतिक आपदा हमारे असंयमित होने का ही परिणाम होती है।
जीवन में सफलता की ऊंचाइयों को पाने के लिए अपने जीवन का सुचारू रूप से प्रबंधन ही प्रथम सोपान है। प्रबंधन के लिए सबसे पहले अपने विचारों का नियमन करना है। जैसे विचार होते हैं वैसे ही सोच बनती है और जो हम सोचते हैं वही वाणी रूप लेती है। यही वाणी हमारे व्यवहार का आधार होती है और व्यवहार हमारी आदतों का निर्माण करता है। अंतता जैसी आदतें होती हैं वैसा ही हमारा चरित्र बनता है।
अपने को बेहतर बनाने के लिए कि हम विचारों पर अंकुश रख अपनी आदतों को बेहतर और अपनी जीवन-शैली को और उत्तम-तर बनाएं। विचारों को व्यवस्थित या दूसरे शब्दों में सकारात्मक रखने से हमें सबसे बड़ा लाभ यह भी होता है कि हम विरोधी के गुणों से भी कुछ ना कुछ अवश्य सीख सकते हैं। विचारों की गुणवत्ता से ही हम कृष्ण बन सकते हैं और विचार भटक गए तो कंस के नाम से भी पुकारे जा सकते हैं।