कपड़ों पर जरा सा भी दाग लग जाए हम उद्गिन हो जाते हैं। दाग पक्का न हो जाए इसलिए तुरंत ही वाशिंग मशीन में धो लेते हैं। गंदे झूँटे बर्तन भी एक दम डिशवाशर से साफ कर लेते हैं अगर गंदगी पड़ी रही तो कॉकरोच अथवा अन्य जीव पैदा हो जाने और दुर्गंध फैलने का डर रहता है। खिड़कियों के कांच पर लगे धब्बे वाइपर से साफ हो जाते हैं। घर की धूल हटाने, फर्श पर पोंछा लगाने का काम वैक्यूम क्लीनर से हो जाता है। शरीर पर लगी धूल नहाकर हट जाती है। काया में मल या जल इकट्ठा हो जाए तो डॉक्टर से इलाज कराते हैं। घर के अंदर कोई गंदे जूते पहने आ जाता है या परिवार का सदस्य फर्श पर कुछ अवांछित गिरा देता है तो हम तुरंत ही क्रोधित हो उसे आगे ऐसा न करने की चेतावनी देते हैं और तुरत ही साफ-सफाई करा देते है।
लेकिन जब हम खुद ही अक्सर अपने पवित्र मन में विषय-कषाय का इधर-उधर का कूड़ा इकठ्ठा करते रहते हैं तो क्या कभी अपनी भी कभी भर्त्सना करते हैं या भविष्य के लिए सतर्क रहने की चेतावनी देते है? अथवा आत्मा पर लंबे समय से अधिकार जमा कर बैठे कर्मों का जो मैल रुका पड़ा है उसे साफ करने के लिए कोई प्रयास करते हैं? शायद नहीं। क्योंकि विज्ञान ने ऐसा कोई कोई यंत्र नहीं बनाया है जो वहां सफाई करदे। बन भी नहीं सकता। उसे हमें स्वयं ही साफ करना होगा जिसकी प्रक्रिया है तो सरल परंतु श्रम साध्य है। उसे साफ करने के लिए हमें प्रभु की शरण में ही जाना पड़ेगा। लेकिन क्या प्रभु की शरण में जाने के हम पात्र हैं?
धागे में गांठ लग जाए तो सुई में पिरोकर सिलाई नहीं कर सकते। गन्ने में गांठ की जगह रस नहीं होता। शरीर में कहीं भी गांठ हो जाए तो जीवन को संकट में डाल देती है। फर्नीचर बनाने के लिए भी हम गांठ वाली लकड़ी का प्रयोग नहीं करते। तब फिर अपने मन में लगी क्रोध, मान, माया और लोभ की कितनी ही गांठों के साथ अनुपयोगी हुए, हम कैसे प्रभु की शरण में जाकर उनसे आशीर्वाद की उम्मीद करते हैं?
सुविधा के लिए हमने परस्पर-विरोधी मानक बना लिए हैं। हम दुख नहीं चाहते, लेकिन दुखों को न्योता देने वाले सभी काम बड़ी खुशी से करते हैं। फिर भी आशा करते हैं कि दुख हम से दूर रहें। हम जीवन भर खुशियों की तलाश में भटकते और खटते रहते हैं, फिर भी हमें तृप्ति नहीं मिलती। वह सुकून नहीं मिलता, जो हमें आत्म-संतुष्टि दे सके, सार्थकता का अनुभव करा सके। और यह सब पाने के लिए हमें अपनी चाहतों के ढेर में से उस सही चाहत को तलाशना होगा, जिसके मिल जाने से हमारी अतृप्ति समाप्त हो सकती है।
वह चाहत है प्रभु की शरण। प्रभु कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं। अपितु वे समस्त महान आत्मा और उन के ऐसे गुण तथा आचरण पर आधारित सन्देश हैं जिनके कारण उन्हे परमानंद प्राप्त हुआ। उन को आत्मसात कर हर कोई अपने जीवन को सुखमय बना सकता है। अगर तमाम भौतिक उपलब्धियां एकत्र कर लेने के बाद भी हमारा अंतस जीवन के शाश्वत मूल्यों से खाली है तो हम वास्तविक सुख का अनुभव नहीं कर पाएंगे। उपवन को पानी को दूर कर देने के बाद यदि उसे हरा-भरा नहीं रखा जा सकता तो हम सोच भी कैसे सकते हैं कि प्रभु से दूर होकर हम जीवन को भी हरा-भरा और उज्ज्वल रख सकते हैं।
जैसे पतंग के आकाश में उड़ने और टिके रहने का श्रेय हवा की अनुकूलता को ही नहीं जाता। हवा की प्रतिकूलता में भी वो तब तक उड़ती और टिकी रहती है जब तक कि डोर से बंधी है। ऐसे ही हम अपने कामनाओं के पंख पर संसार में विचरण करते हुए भूल गए हैं कि सारी अनुकूलता होते हुए भी हमारी यह उड़ान तभी तक है, जब तक हम अपने आचरणों द्वारा प्रभु कृपा की डोर से बंधे हैं।