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स्वप्न और खजाने क्या कभी पूरे भर पाते हैं?- डॉ. निर्मल जैन 

एक दिन मैंने अद्भुत सपना देखा। सपने में मैं ऐसा भिखारी बना हूं जिसने अपनी सारी उम्र की कमाई एक-एक पैसा जोड़ कर एक स्वर्ण मुद्रा खरीदी। फिर उस मुद्रा को ले कर मैं एक सेठ की हवेली के पास जा पहुंचा। सेठ ने मुझे भिखारी के वेश में देख कर हवेली का द्वार बंद करना चाहा। मैंने उसी समय वह स्वर्ण मुद्रा उसके द्वार पर गिरा दी और कहा –
सेठ जी मैं आप से भीख मांगने नहीं बल्कि एक सौदा करने आया हूं। सेठ विस्फरित नेत्रों से मुझे देखते हुआ बोला- ‘भिखारी होकर मुझसे सौदा करेगा?’ मैंने विनय पूर्वक प्रार्थना की- हां, आपसे सौदा करना है मुझे। नगर सेठ मैंने सारी जिंदगी एक-एक पैसा जोड़ कर यह एक स्वर्ण मुद्रा खरीदी है। यह स्वर्ण मुद्रा आप ले लें और बदले में अपना खजाना मुझे मात्र एक घंटे के लिए दिखा दें। आपके खजाने से मैं एक पाई भी नहीं लुंगा।

सेठ ने सोचा अजब पागल भिखारी है, जो सिर्फ एक घंटा मेरे खजाने को देखने भर के लिए अपने जीवन भर की कमाई मुझे सौंप रहा है। उसे यह सौदा मुनाफे का लगा। सेठ ने स्वर्ण मुद्रा ली और अपने खजाने के द्वार मेरे लिए खोल दिए। मैंने देखा खजाने वाला कक्ष बहुमूल्य हीरे, मोती, स्वर्ण जड़ित आभूषणों एवं भांति-भांति की मुद्राओं से भरा हुआ था। मेरी आँखें फटी रह गईं और मैं जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगा- ‘यह खजाना मेरा है, यह मेरा खजाना है।’

मेरे इस तरह चिल्लाने पर सेठ बड़े जोर से हंसा और बोला-‘पागल, पहली मूर्खता तो तूने यह की कि अपनी जीवन भर की कमाई स्वर्ण मुद्रा गवां कर इस खजाने को देखने आया और दूसरी मूर्खता तू यह कर रहा है कि मेरे खजाने को अपना कह रहा है। कहीं तू सच में कोई पागल तो नहीं है?’

मैने सेठ को जबाब दिया- ‘सेठ मैं एकदम भला चंगा हूं। एक घंटे तक मैं इस खजाने के भीतर हूं और उसको देख कर इसे मैं अपना कह रहा हूं। मुझ में और और आप में सिर्फ इतना ही फर्क है कि इस खजाने को आप कुछ वर्षों तक देखने के बाद अपना कह रहे हैं, और मैं सिर्फ एक घंटा देखने के बाद अपना कह रहा हूं।

        न यह खजाना मेरा है और न ही आपका है। मुझे एक घंटे के बाद यहां से चला जाना है और आपको कुछ अधिक समय के बाद जाना है। मजेदार बात तो यह है कि किसी भी हालत में यह खजाना न मेरे साथ जाना है और न आपके साथ। मेरी तरह आप भी इसे देखते ही रहे। किसी सदुपयोग में तो इसे कभी लगाया नहीं।’ ठीक इसके बाद मेरी आंख खुल गयी।

           सारा स्वप्न खंडित हो गया। न कोई सेठ था न कोई खजाना। स्वप्न भले ही खंडित हो गया हो। लेकिन एक अखंड सत्य को वह जरूर उद्धाटित कर गया,

          -स्वप्न और खजाने क्या कभी पूरे भर पाते हैं? प्रकृति आवश्यकता से जुड़ी है, तृष्णा से नहीं। तृष्णा की अठखेलियां ही निराली हैं। निर्धन इसलिए दुखी है कि उसके पास कुछ भी नहीं है और धनवान सब कुछ होते हुए भी परितृप्त नहीं।  यही तो जिनदर्शन कहता है।

जज (से.नि.) 

डॉ. निर्मल जैन 

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