हम उन चीजों से कम बीमार होते हैं जो हम खाते हैं। ज्यादा बीमार उन चीजों से होते हैं जो हमें अन्दर ही अन्दर खाती रहती हैं। कुछ रोग अनुवांशिक या कोई शारीरिक समस्या हो सकते हैं। परन्तु अधिकांश रोग हमारे अपने ही पाले हुए हैं। अपने पाले होने से अभिप्राय है -मूलत: नकारात्मक सोच। सीधे शब्दों में गलत सोचना। जिसका परिणाम होता है –सबको दोषी मान बैठना, व्यर्थ में उलझना, हर समय यह भय कि कुछ गलत होने वाला है, अपने को कमजोर समझना। ऐसी नकारात्मक सोच रखने वाले लोग स्वयं तो दुखी-आत्मा होते ही हैं अपने व्यवहार से औरों को भी तनावग्रस्त बनाते हैं।
हर क्रिया से पूर्व और उसके बाद विचारों का आना-जाना अनिवार्य है। जब तक कोई विचार परेशान ना करे तब तक वह सामान्य हैं। परन्तु जब विचार निश्चित स्तर से ऊपर जाकर हैरान या परेशान करने लगे तब यह चिंता अथवा उद्गिन्ता (ANXIETY) का जनक बन जाती है। उद्गिन इंसान कभी भी संतुष्टि का अनुभव नहीं कर पाता है। उसे सदा दुख का एहसास होता रहता है। सचेत रहना, सावधानी बरतना अनिवार्यता है। जबकि चिंता करने का मतलब विचारों को गहराई से सोचते-सोचते अपने को खोखला कर देना। सावधान रहिए, चिंतित नहीं।
भागती-दौड़ती ज़िंदगी में हर कोई व्यर्थ की प्रतिस्पर्धा, तनाव को साथ लिए हैरान, परेशान है। शान्ति बेचारी तो कहीं इस भीड़ में गुम हो गई है। कोई ऐसा भाग्यवान परिवार मिलना दुर्लभ है जहाँ आरोग्य-देव का वरदहस्त सब के सिर पर हो। तन की अस्वस्थता तो विकसित चिकित्सा विज्ञान द्वारा लगभग पूरी तरह दूर की जा सकती है। लेकिन मानसिक उद्वेगों से बिगड़ी मानसिक स्थिति से उबरने के लिए कठिनतम साधना भी आश्वस्त नहीं करती कि स्थिति यथापूर्व हो ही जाएगी। अत: सही सोचें सही खाएं। भोजन से केवल भूख ही शांत नहीं होती, इसका प्रभाव मन एवं मस्तिष्क पर भी पड़ता है। शरीर को शक्ति मिलती रहे और उसका क्षरण ना हो इसलिए क्या-खा रहे हैं क्या-पी रहे हैं इसका संरक्षण करना आवश्यक है। स्वास्थ्य और हमारी सोच एक दूसरे के पूरक हैं। इंसान जैसा सोचता है, उसका शरीर वैसी ही प्रतिक्रिया करता है। शब्द भी वैसे ही निकलेंगे।
चिंता से उपजे सामान्य स्ट्रेस से तो आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन ज्यादा स्ट्रेस, डिस्ट्रेस बन केवल भौतिक प्रभाव ही नहीं रखता बल्कि इसमें आशंकाओं या भय की भावनाओं, निकृष्टतम का अनुमान, चिड़चिड़ापन, बेचैनी कई भावनात्मक प्रभाव भी शामिल हैं। ख़ुद को मानसिक रूप से मजबूत कर इस तनाव की स्थिति से बाहर निकलना जरूरी है। इसके लिए रिश्तों को मजबूत करें। छोटी-छोटी बातों का बुरा न मानें। निगेटिव बातों पर चर्चा कम करें। अगर डर, उदासी है तो अपने अंदर छुपाए नहीं। बल्कि परिजनों या दोस्तों के साथ शेयर करें। सबसे बड़ी बात बुरे वक़्त में भी अच्छे पक्षों पर गौर करना है।
सोशल मीडिया लाभकारी होते हुए भी उस से थोड़ा परहेज रखें। इसके “निष्क्रिय उपयोग” में उलझ कर अन्य लोगों के चित्रों और जीवन को देख उनकी तुलना हम खुद अपने से करने लगते हैं जो हमारे मानसिक स्वास्थ्य को सबसे बुरी तरह प्रभावित करती है।
सुविधाओं को जुटाने की दौड़ में स्वस्थ जीवन के लिए सबसे बड़ा टॉनिक हंसना लुप्त होता जा रहा है। आधुनिकीकरण को नकार भी नहीं सकते। लेकिन उसके लिए अनमोल जीवन की आहुति भी तो नहीं दी जा सकती। इस दुविधा का एक ही समाधान है -हमें अपने अतीत की ओर लौटना होगा। हमारी स्वयं की एक जीवन पद्धति है। जो आज भी इन सबका समाधान बन सकती है। यह बात अवश्य है कि हज़ारों वर्षों के इतिहास में हमारे यहां जो जीवन पद्धति चली है उसको हम आज वैसा का वैसा अपना कर जीवन निर्वाह नहीं कर सकते। आधुनिक अवधारणाओं में रहने के अभ्यस्त हमारे लिए उसे उसके असली रूप में अपनाना संभव नहीं होगा। अनेक कठिनाइयां आ जाएंगी। परंतु इस के पीछे जो तत्त्व हैं हम उनको भुलाकर काम भी नहीं चला सकते। हमें उनके मूल रूप पर विचार कर उन्हें युगानुकूल बनाकर गृहण करना होगा