इन दिनों हम सभी बचाने में लगे हैं। कोई देश बचा रहा है, कोई पर्यावरण। कोई सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने मे व्यस्त है तो धर्म परायण लोग धर्म को लेकर बड़ी चिंता में हैं। परोक्ष रूप में मानने लगे हैं कि धर्म अपनी राह से भटक गया है। धर्म को बचाया जाए। अगर ऐसी ही है हमारी सोच तो कैसे हो गए हैं हम? धर्म तो सब को बचाता है। उसे कौन बचाएगा? जो स्वयं सबको पवित्र करता है वह कैसे विकृत हो सकता है? धर्म तो शाश्वत है, स्थिर है, सार्वकालिक है, अपरिवर्तनीय है।
चिंता धर्म को लेकर नहीं उसकी प्रक्रियाओं को लेकर हो सकती है। धर्म डूब नहीं रहा जो उसे बचाना है। वो तो हम सबका तारण हार है। हाँ हमें बचाना है धर्म को -अपने से बचाना है, -उन लोगों से जो धर्म में विकृतियां लाते हैं। बचाना है -ऐसे सोच वालों से जो धर्म को उसके मूल स्वरूप से हटाकर उसकी प्रक्रियाओं में कर्मकांड, आडंबर, दिखावा कर कल्पित चमत्कार के सपने दिखाते हैं। भक्ति को भक्तिरस में परिवर्तित करते हैं। हमसे शोर में शांति की तलाश कराते हैं। अपरिग्रह का उपदेश दे परिग्रह की ओर आकर्षित करते है।
केवल एक लाइन का बड़ा तीखा व्यंग है –किताब पढ़कर तैरना सीखना। बिल्कुल हम लोग उसी को चरितार्थ कर रहे हैं। हमारी सारी धार्मिकता और सारी आस्था द्रव्य पर आधारित हो गई है। संसार के सारे कष्ट, दुख और अंत में मोक्ष तक प्राप्ति के लिए के लिए अष्टद्रव्य और उसके ऊपर भी एक बहुत बड़ा द्रव्य जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में धन कहा जाता है पर केंद्रित हो गई है। जैसे कोई किताब में पढ़कर तैरना नहीं सीख सकता वैसे ही अपने आचरणों को तिलांजलि देकर उन तीन लोक के नाथ के चरणों और शीश पर क्या मात्र यह द्रव्य ही चढ़ाकर मोक्ष के दरवाजे तक पहुंच पाएंगे?
कुछ धार्मिक क्रियाओं को लेकर हम सभी अनुभव कर रहे हैं कि वे सुसंगत नहीं है। लेकिन जब हम इन विकृतियों को दूर करने की सोचते हैं तो अपने को छोड़ कर सभी को दोषी ठहरा देते हैं। कभी-कभी तो इन विकृतियों के निवारण, निराकरण का भार उन्हीं पर डाल देते हैं जिनके कारण यह पोषित हुई हैं, पल्लवित हुई हैं। अगर वास्तव में हम चाहते हैं कि हमारे धर्म में जो कुछ बदलाव आया है, हालांकि धर्म बदलता नहीं। धर्म करने वाले बदलते हैं। तो सबसे पहले तो हमें यह खोजना होगा कि यह बदलाव कौन लाया? उसके बाद यह खोज कि ऐसा करने वालों का इस सब के पीछे इरादा धर्म के हित में था, जनमानस के हित में था, धर्म प्रभावना के हित में था या इन सबसे परे उनका ही अपने निहितार्थ, अपनी अनुशंसा, प्रशंसा, अपना प्रचार-प्रसार के लिए तो नहीं था?
लेकिन हर कोई उस तरफ जहां से यह गंगोत्री दूषित होनी शुरू हुई है उंगली उठाने से भय खाता है। यह भय इस लोक की हानि का भी हो सकता है और परलोक के बिगड़ने का भी। लेकिन इतना तो निश्चित है कि-जख्म धोने से घाव भरता है पट्टी धोने से नहीं। अगर वास्तव में ही हम यह समझते हैं कि हमारी प्रक्रियायें हमारे धर्म का मूल स्वरूप जैसा था वैसा नहीं दिखा रही हैं तब हमें बिना निज हित-अहित सोचे दोषी को दोषी कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। सच कहना न तो निंदा है और न ही उससे पाप या नर्क का बंध होता है।
अगर वास्तव में ही कुछ करने की भावना है, कोई संकल्प है तो सबसे पहले- घरों की राख फिर देखेंगे पहले देखना यह है, घरों में आग लगाने का काम कौन करता है? इस प्रदूषण का स्रोत कहाँ है ? कहीं ऐसा न हो जाए कि बिना सच का अन्वेषण किए माचिस की डिब्बी को ही आग बुझाने का काम सौंप दिया जाए या डोली को लुटेरों के सुपुर्द कर दें। तब हम अपने ऊपर समाज सुधारक या अग्रणी बनने का झूठा गर्व तो कर सकते हैं। निसंदेह कुछ लोगों में ज्यादा प्रचलित और सम्मानित भी हो सकते हैं। लेकिन इन निरर्थक प्रयासों से लाभ किसी का नहीं होगा।