NOTE-(यह लेख केवल सच का उदघाटन करता है किसी पर आक्षेप नहीं।)
लेखक : डॉ. निर्मल जैन
लड़की शादी के दो दिन बाद ही ससुराल की मान-मर्यादा को आत्मसात कर उस घर को अपना घर बताना शुरु कर देती है। लेकिन शादी को कितने साल क्यों ना हो जायें दामाद कभी भी अपने ससुराल को अपना घर नहीं समझता। यह छोटा सा उद्धरण मन में एक प्रश्न पैदा करता है, ऐसा भेद क्यों? क्या यह पुरुष का पुरुष होने का अहं है। नारी का ममत्व है या परम्पराओं की विवशता?
पुरातन भारतीय परिवेश में नारी सदैव ही सम्मानीय रही है। पश्चिमी विचारधारा में स्त्री की पहचान एक माँ, बहन, बेटी, भार्या तक ही सीमित थी, भारतीय संस्कृति में उसका स्थान देवी-तुल्य रहा है। मानव सभ्यता के तीन आधार स्तंभ –बुद्धि, शक्ति और धन तीनों की अधिष्ठात्री सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा देवियाँ नारी ही हैं।
नारी के इन सभी रूप-स्वरूप को पुरुषों द्वारा पूजा जाता है। स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी एवं सहधर्मिणी है, उसके बिना पुरुष अधूरा है। प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान नारी सहित ही संपन्न होता है । फिर क्यों मुक्ति के अंतिम अनुष्ठान पर उसके लिए द्वार बंद हो जाते है ?
जीवन-सर्जक, मार्ग-दर्शक, विकास की स्रोत, परिवार को सँभालने वाली इन सब के अनूठे मेल की प्रतिमा है–नारी। मनुष्य की प्रथम शिक्षिका है नारी। नख से लेकर सिर तक उसे सोने की जंजीरों से जकड़ कर सोलह श्रंगार के नाम से ठगा जाने पर भी सरल-हृदया नारी अपने को धन्य मानती आ रही है। क्योंकि सब की खुशी में ही वो अपने खुशी अनुभव करती है। पूर्णतय: समर्थ, शिक्षित और कुशल होने के बाद भी वो केवल इस वजह से ही पीछे कर दी जाती है, क्योंकि वो नारी है। अगर कभी यह कुंठा नारी का आक्रोश बन कर बाहर आ जाती है तो आश्चर्य कैसा?
कहते हैं नारी को विधाता भी नहीं समझ पाया। आज वो इस सभ्य समाज से पूछती है कि -वो आज तक खुद इस पुरुष-प्रधान-समाज का यह कुचक्र नहीं समझ पायी कि -प्रकृति से मिली भिन्न शारीरिक-रचना को लेकर उसकी सारी अन्य विशेषताएँ क्यों शून्यता को प्राप्त हो गईं? घर-परिवार की मान-मर्यादा, इज्जत, अस्मिता कहने के बाद भी क्योंकर उसके व्यक्तित्व को लेकर सार्वजनिक रूप से अवमानना की गयी। क्या ऐसा करने वाले वर्जित भाव-हिंसा के दोषी नहीं ?
धर्म सब का उद्धारक है। फिर भी कई धर्म-स्थलों में नारी का प्रवेश वर्जित है? मोक्ष उसके लिए नहीं है। उसके लिए कुछ विशेष संबोधन भी हैं –नारी नरक का द्वार है, विष-बेल है। उस के ह्रदय की इस विशालता का अभिनंदन कि -जिन धर्मगुरुओं, साधु-संन्यासियों ने नारी को आत्मसम्मान मिलने में सबसे ज्यादा बाधा दी है उन सभी के आतिथ्य सत्कार का सारा ठेका इस नारी ने ही ले रखा है। उनके हर आयोजन में पुरुषों से अधिक अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।
अजीब है ! यह नारी भी। जानती है कि जो लोग इन संतों को घेरे हुए है उन मे से कई तो ऐसे “वर्जित शौक” रखते हैं जिनसे छू कर आई हवा के स्पर्श से भी संतों की साधना खंडित हो सकती है। फिर भी उसके द्वारा चरण-स्पर्श तो दूर उनसे “सोशल-डिसटेन्स” बनाए रखना उसके प्रारब्ध में लिखा है। चेहरे पर आस्था, भक्ति, सहनशीलता की मुस्कान लिए स्वभावानुसार मौन हो कर भीड़ में खड़ी दूर से ही नमस्कार कर संतुष्ट हो जाती है। संयम पर नियंत्रण के स्थान पर कारण को ही अपराधी के कटघरे में खड़ा करना कैसा धर्म-सम्मत?
नमन है ! उस क्षमा-मूर्ति नारी को जिसे साहित्यकारों ने, कवियों ने सुकोमल, पुष्पकली, कमनीय कहकर संबोधित किया है आज नॉकडाउन में भी वो चूड़ियां नहीं सबसे कठोर काम बर्तन खंडकाने में व्यस्त होगी।