लेखक-डॉ. निर्मल जैन
भविष्य की सुविधाओं को खरीदने के लिए हम अपना वर्तमान बेचने लगे। सूर्योदय से देर रात तक अधिकतर समय धन और सुविधाएं की तलाश में बिताते रहे। घर केवल रैन-बसेरा सा हो गया। जीवन-साथी को समय नहीं दे पाना अलगाव का सबसे बड़़ा कारण बन गया। परिवार संघर्ष, विवाद, अशान्ति, के चलते टूटने की कगार पर आ पहुंचे। सामाजिक शिष्टाचार और नाते-रिश्ते केवल स्वार्थ और जरूरत पर आधारित रह गए। इतने व्यस्त हुए कि सब से दूरियां बढ़ा लीं। साथ रहते हुए भी अकेलेपन के अहसास ने तन-मन दोनों को अस्वस्थ कर दिया।
धन कि लालसा में व्यस्त माता-पिता के साथ रहते हुए भी बच्चे उपेक्षित हो गए। अपनो से आत्मिय-दूरी और स्वयं में उपजे संवेगात्मक तनाव के चलते उनके स्वभाव में उग्रता उद्दंडता व्याप्त हो गई। सब कुछ भुला बैठे कि जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है, जीवन का प्रथम धर्म अपने कर्तव्यों का पालन है। एकल परिवार में इतनी स्व्छंदता मिली कि संयुक्त-परिवार में रहना बंधन समझा जाने लगा।
धार्मिक प्रक्रियाओं का व्यापारीकरण हो गया। केंद्र में धन आ गया आस्था को आडंबर, कर्मकाण्ड के आवरण से ढँक दिया गया। शोर में शांति की तलाश, भीड़ में एकांत-भाव खोजने लगे। राजनीति में धर्म का लोप हो गया। केवल राज करना ही लक्ष्य बन गया, नीति कहीं देखने को नहीं मिलती। अपना आर्थिक, भोगोलिक साम्राज्य विस्तार करने की ऐसी होड़ लगी कि मानवता और नैतिकता शर्मसार होने लगी।
अच्छी जीवन-शैली के लिए बहुत से पैसे होना ज़रूरी है। लेकिन कितना और किस सीमा तक? इसका उत्तर हम में से किसी के पास नही है। हमारी इन सारी गतिविधियों के अतिरेक को लेकर हमारे ऋषि-मुनि, हमारे धार्मिक ग्रंथ हमें कब से चेतावनी देते रहे हैं कि -यह न भूलें कि यह ब्रह्मांड सभी जीवो के लिए है, हम अकेले के लिए ही नहीं। क्रय-शक्ति, रुपया-पैसा भले ही हमारा हो लेकिन संसाधन पर सभी का अधिकार है। जब तक सबकी अवश्यकताओं की पूर्ति न हो तब तक विलासिता के लिए कोई स्थान नहीं।
जब हर क्षेत्र में हमने अति कर दी तो प्रतिक्रिया भी गंभीर रूप में होनी ही थी। एक छोटे से कोरोना विषाणु ने हमें सब कुछ समझने, सीखने को मजबूर कर दिया। बाहर से सारी दूरियां समेट कर हमें अपनों के बीच ला बैठाया। अपनी छोटी से छोटी दिनचर्या के लिए न जाने किस-किस पर आश्रित होते थे, इस वायरस ने हमें सबको स्वावलंबी बना दिया। घर परिवार में रहते हुए पहले जो हाथ मोबाइल में व्यस्त रहते थे वही अब घर के कामों में एक दूसरे के सहयोगी बन गए। सोच ही बदल गयी। अनिश्चितता कि स्थिति ने पदार्थों की अहमियत बता दी। आज घर में जो प्राप्त है वही पर्याप्त लग रहा है। लॉक डाउन से हमें सच पता चल गया कि जीवन-यापन के खर्च तो बेहद कम है, सिर्फ लाइफ-स्टाइल एवं दिखावा ही खर्चीला होता है।
कोरोना वायरस घातक है, मारक है। जल्दी ही चला जाएगा। लेकिन यह हमें उन यम-नियम-संयम को जिन्हे हम भूल गए थे फिर से सिखा जाएगा। हमारी आदत बना जाएगा कि हम कम से कम में भी सिर्फ जरूरतों को पूरा कर आराम से शांत-सुखद जीवन व्यतीत कर सकते हैं। संसाधनों का उपभोग के स्थान पर उपयोग करना सीख जाएंगे। दूर रह कर भी नज़दीकियां बढ़ाने की कला आजाएगी।