जीवन का सिलसिला बचपन के विशाल मैदान में खेलते-कूदते शिक्षण के दायरे से गुजरता हुआ जब ऐसे मोड़ पर आ ठहरता है कि मन अकेलेपन की रिक्तता भरने के लिए किसी का साथ पाने को आतुर हो उठता है। ऐसे ही मनमीत के साथ जुड़ने पर सामाजिक मोहर का नाम विवाह है। विवाह की नाजुक पतली डोरी में बंधे पति-पत्नी के रूप में यह दो पक्षी जीवन-आकाश की लंबी दूरी को आनंदपूर्वक तय करने में साथ-साथ उड़ते हैं कि आकाश का भारीपन, सूनापन उनके पंखों को बोझिल न कर दे, कोई एक थके तो दूसरा ऊर्जा भर दे। विवाह मात्र स्त्री-पुरुष का नहीं बल्कि समझ और सहनशक्ति का मंगल मिलन है। वैवाहिक जीवन एक गुलाब का फूल है जो कर्तव्य और उत्तरदायित्व की पंखुड़ियां से महकता हुआ विवशता के कांटों से घिरा रहता है। परफेक्ट विवाह या करेक्ट जीवन साथी जैसी कोई चीज नहीं होती। स्वयं को परफेक्ट करते हुए कुछ लेने के लिए नहीं अपितु साथ देने की भावना से विवाह को परफेक्ट बनाया जा सकता है।
विवाह पूर्व दोनों कल्पना के लुभावने आकाश और सपनों की सुनहरी दुनिया में मुक्त मन से उड़ान भर रहे होते हैं। विवाह में बंध जाने के बाद दिल का उन्मुक्त पंछी यथार्थ के धरातल पर उतरता है तो जीवन यात्रा के नाना प्रकार के अवरोध सामने आते हैं। परिवेश बदलते ही सोच भी बदलने लगती है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी कि जब रिश्ते तय किये जा रहे होते हैं तब प्राथमिकताएं कुछ और होती हैं। लेकिन जैसे ही रिश्ता सामाजिक मान्यता में बंध जाता है तो एकाएक दोनों पक्षों द्वारा पैमाने बदल दिए जाते हैं। बस यही से समस्याएं खड़ी होती हैं।
आधुनिकता की दौड़ में जो आंखें इंटरनेट से डॉक्यूमेंट निकाल-निकाल कर थक गई हों उनके पास आंतरिक सौंदर्य देखने का समय या धीरज यूं भी नहीं बचता। बंगला, गाड़ी, मोटी कमाई, छरहरा बदन और बाहरी सौंदर्य देखने वाली आंखों से उस भीतरी सौंदर्य को देखा भी नहीं जा सकता। यह सब पाने के उतावलेपन में वह स्थिरता और ठहराव भी खो जाता है, जो इस पवित्र रिश्ते में होता है। आखिर यह रिश्ता कोई “वन नाइट स्टैंड” की तरह तो नहीं। इसे अंतिम सांस तक निभाना होता है। सप्तपदी के वचनों में बंधे संबंधों को टिकाऊ बनाए रखना एक चुनौती है। क्योंकि संबंधों में अलगाव पैदा करने वाली अनगिनत परिस्थितियां मुंह बाये खड़ी मिलती है। कहीं परिवारी जन, कहीं तुलनात्मक रूप से सौंदर्य और सर्वोपरि धन। जब भी दोनों में से कोई भी इन सबको या किसी एक को संतुष्ट करने के मार्ग पर निकल पड़ता है तो इनमें से संतुष्ट तो कोई भी नहीं होता हां परस्पर असंतुष्टि डेरा अवश्य जमा लेती है।

ऐसी स्थिति बने ही नहीं इसलिए श्रेयस्कर यही है कि अपने को संतुलित रख, दिलो-दिमाग में इस सच को स्थिर कर लेना -कि मेरे जीवन में इस व्यक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है। एक दूसरे के बिना अधूरापन पसर जाएगा। जीवन साथी की अच्छाइयों को सूचीबद्ध कर लेना और कमियों पर ज्यादा तवज्जो न देना ही एकमात्र विकल्प है। सिर्फ मैं और मैं के साथ शुरुआत हुई रिश्ते अहंकार के साए और तर्क के तले जिंदा रहते हैं। अहंकार नहीं तोड़ा तो समझ, समर्पण, सौहार्द्य, समरसता के अभाव में दंपति से गमपति बनने में देर नहीं लगती। रिश्ते वही अच्छे लगते हैं जिनसे जिसमें प्रेम रिसता रहे। लेकिन जहां संवेदनाएं पिसती हों, सांस घुटता हो उम्मीदें दम तोड़ती हो और एक दूसरे को देखकर असुविधा महसूस होने लगे तो फिर रिश्ते, रिश्ते नहीं रिसते घाव बन जाते हैं।
परस्पर आचार, व्यवहार में कुछ असमानता रह जाए तो उसे उसे धीरज के साथ सामंजस्य बिठाकर भिन्नता में भी एकरूपता का परिचय देकर जुड़े रहने में ही समझदारी है। तोड़ने का क्या उसके लिए तो एक पल काफी है। टूटते सिर्फ दो हैं। पर यह टूटन कई जिंदगी के वर्तमान और भविष्य को नेस्तनाबूद कर देती है। टूटने और जुड़ने के इस खेल में दोनों के परिवारजनों का भी बहुत बड़ा रोल होता है। अगर वे अपनी EGO से परे समझदारी से काम लें तो ऐसी स्थिति उत्पन्न ही न हो। दांपत्य जीवन के इस बेतरतीबी मोड़ पर पक्षकार अलगाव को ही सुखकर समाधान समझ न्याय-शास्त्रियों या न्याय की शरण में जाते हैं। लेकिन यह टूटन के ताबूत में अंतिम कील ठोकने के अलावा और कुछ नहीं। न्याय का दृष्टिकोण तुलनात्मक होता है, न्यायालय में एक की जीत में दूसरे की हार भी शामिल होती है। जबकि पारिवारिक उलझनों में कानूनी दाव-पेंच से अलग, गलतियां गिनाने की नहीं, जरूरत होती है समायोजन की, समझौते की और परस्पर सामंजस्य पुनर्स्थापित करने की। ऐसे प्रयासों की जो बिखरने के दूरगामी घातक प्रभाव से अवगत करा कर हार-जीत से परे, दूरियों को नजदीकयों में बदल दें। जिससे दोनों को ही विजयी होने की अनुभूति का आभास हो, और जीवन की ट्रेन फिर से समानान्तर पटरियों पर छुक-छुक करती, खुशियों की सीटी बजाती सरपट दौड़ने लगे । यह पुनीत कार्य बाहर के लोगों द्वारा नहीं अपितु अपने हितेषी, अनुभवी लोगों ही द्वारा संभव होता है।