पुत्री-दिवस (Daughter’s Day) विभिन्न देशों में अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है। भारत में इसे सितंबर के अंतिम रविवार को मनाते हैं। निर्माण और संहार के कितने ही विकल्प और उपकरण पुरुष ने बना लिए और बना ले। लेकिन सृजनात्मक-शक्ति का उपहार प्रकृति ने केवल नारी को ही दिया है। इस सृजनात्मक-शक्ति से विश्व को उपकृत करने वाली नारी जब प्रथम बार धरा पर अवतरित होती है तो वह बेटी ही होती है। उस के बाद ही वह बहन, भार्या और अंतत: जननी (मां) बनती है। बेटी के जीवन का अंतिम सुखद पड़ाव माँ का रूप।
मां-बेटी के बीच, माँ-बेटी के रिश्ते से अधिक एक निस्वार्थ-दोस्त का रिश्ता होता है। सारी किताबें इतनी “समझ” बेटी में नहीं भर पाती, जितनी समझ एक माँ अपनी बेटी में बातों-बातों में भर देती है। बेटी के सुखी जीवन में माँ का अधिकतम योगदान और दायित्व होता है। पिता की जायदाद की वसीयत भले ही बेटे के नाम कर देते हों, पर माँ के संस्कारों की वसीयत हमेशा बेटी के नाम पर जाती है।
बेटियां शिक्षित व आत्मिर्भर भी हो रहीं हैं। हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला रही हैं। फिर भी मंचों से नारी महिमा का गुणगान करने वाले पुरुष ही नहीं नारी-जागृति का उद्घोष करने वाली महिला-नेत्री भी अपने परिवार में कामना बेटे और पोते की ही करते हैं। समाज मे भी बेटी और बेटे के अधिकारों,उत्तरदायित्वों में समन्वय की बहुत कमी है। कठोर क़ानून बनने के बाद भी दहेज़ का दानव रूप ज्यों का त्यो खड़ा हो कर बेटियों के “अवतरण” पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा रहा है। असंतोष का एक बड़ा कारण यह भी कि लड़कियां -ब्याही जाती है घरवालों की पसन्द से, वेतन, जमीन-जायदाद और बिज़नेस को देख कर। बस वो ब्याही नहीं जाती अपनी रुचियों और समान विचारों से।
आजकल स्थिति कुछ ऐसी विषम बन गयी है कि बेटी और बेटे दोनों के परिवार ही भविष्य को लेकर एक आशंका से घिरे रहते हैं। तब क्या केवल एक दिन बेटी दिवस मनाने से समाधान मिल जाएगा? बहुत कुछ करना होगा। जिस घर में लड़कियां पली-बढ़ीं, उनके लिए झुकाव होना लाजिमी है। बेटी “बहू-बेटी” बने इसके लिए उसके पीहर को लेकर अनावश्यक टीका-टिप्पणी ठीक नहीं। कानून के हस्तक्षेप के बाद सास रूपी मां और सुसराल पक्ष तो सतर्क हो गया है। फिर भी कहीं न कहीं कभी न कभी किसी न किसी प्रसंग पर पुत्र-पक्ष होने की “सुपर-पावर” उफान ले ही लेती है। कन्या-पक्ष भी इन दिनों “वाच-टावर” बन कर मोबाइल द्वारा बैक-सीट-ड्राइविंग करने लगा है।
बेटियां ही बहू बनती हैं। तो अधिकांश का अनुभव ऐसा क्यों कि वे अच्छी बेटी होने पर भी अच्छी बहू नहीं बन पातीं? इसके पीछे हम हैं या बेटियाँ? एक परिस्थिति-जन्य कारण तो यह हो सकता है कि बेटी और उसके पीहर-परिवार के बीच कोई अहं नहीं होता। लेकिन ससुराल के हर सदस्य और बहू के बीच हर प्रसंग पर एक अदृश्य शीशे की दीवार का अहसास होता रहता है। इसी से शुरू हो सकता है मन-मुटाव का अध्याय। इसमें सबसे बड़ा दायित्व बनता है पति का। उसे याद रखना है कि समय बीतते-बीतते सब अपने गंतव्य की ओर निकल लेंगे। उस समय कोई साथ देगी तो यही “अनदेखी दीवार के पीछे खड़ी सुसराल की बहू यानि उसकी पत्नी”।
सतर्कता हमें और भी वरतनी है। अब तक सारे प्यार-दुलार की अधिकारी बेटी ही होती थी। लेकिन बहू के आने पर भी यही सिलसिला चलता रहा तो बहू की सोच बन सकती है कि यह घर तो बेटी द्वारा “डोमिनेट” होता है, मैं कौन? दूसरी ओर घर में आई नई मेहमान “बहू और उसकी चका-चौंध” का इतना यशोगान भी न हो जाए कि अब तक की प्रमुख सदस्य रही बेटी को पर्दे के पीछे चले जाने का एहसास हो। इसलिए “बेटी और बहू” दोनों को लेकर घर की प्रमुख महिला की एक साथ “मां और सास” दोनों के रूप में संतुलित किरदार निभाने की कठोर परीक्षा होती है।
समय कि पुकार है कि सिर्फ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ही काफी नहीं। दोनों परिवारों को बेटी-बहू का भेद भी मिटाना होगा। थोड़ी सी स्वतन्त्रता और तनिक सा अनुशासन इन दोनों के समन्वय के साथ कोई भी दूरी मिटाई जा सकती है। संतुलित हो थोड़ा-थोड़ा सब पास आयेंगे तो साथ चलने में आनंद भी अनुभव करेंगे। मिल कर प्यार का सफर आसानी से तय हो जायेगा। जीवन की बगिया में सुगंधित पुष्प खिलेंगे जो उनके आनेवाले जीवन को भी महकायेंगे। फिर हर रोज पुत्री गुणगान दिवस होगा। 9810568232