अपने में कुछ जोड़ने के प्रयास में सब कुछ टूटता जा रहा है। माता-पिता के लिए आदर नहीं रहा। भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन के बीच बचपन की आत्मीयता मेरे-तेरे में बदल गयी। वरिष्ठ-जनों के प्रति सम्मान-भाव टूट रहा है। पति-पत्नी के रिश्ते बिखर रहे हैं। समाज जुड़ती तो है मगर सहिष्णुता और सद्भावना विहीन एक छितरी हुई भीड़ की तरह। सबसे बड़ी बात यह है कि जो जोड़ने का संबल है, जोड़ने का सोपान है, जो मिलना सिखाता है वही धर्म भी टुकड़े-टुकड़े होकर टूट रहा, बिखर रहा है। यह सब हो रहा है सिर्फ तथाकथित अनमोल(?) समझी जाने वाली एक चीज को अपने लिए जोड़ने के लिए। जो कुछ लोगों के लिए धन है, कुछ लोगों के लिए अपनी लोकेषणा है। अथवा, मैं भी “छोटा” नहीं हूँ अपनी इस हीन-ग्रंथि के उन्मूलन हेतु एक कुत्सित प्रयास है। अपनी-अपनी एकल इकाई को पुष्ट करने के लिए संपूर्ण एकता का अंग-भंग किया जा रहा है।
यह चमत्कार है है व्यक्तिवादी सोच का। एकल मनोवृत्ति का। मैं परिवार में हूं तो मैं सबसे अहम माना जाऊं। समाज में हूं तो सब मेरे पीछे तालियां बजायें। मेरे लिए ज्ञान, विद्वान, अनुभव, योग्यता वरिष्ठता के मायने कुछ भी नहीं। क्योंकि मेरे पास ऐसी कोई उपलब्धि है ही नहीं। मुझे तो जैसा भी मैं हूँ, अपने जैसों कि भीड़ के साथ अपनी अलग दुनिया चाहिए। मैं सबके साथ जुड़ कर रहा तो शून्य हो जाऊंगा। इसलिए मैं अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए उस समूह को तोड़कर, विग्रह पैदा कर, कमजोर बना कर अपना अलग ही एक प्रतीक चिन्ह फहराने लगता हूं। पंजों के बल खड़ा होकर बड़ा दिखने की मेरी इस लालसा ने धर्म, समाज और परिवार को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है।
इस स्वार्थी मनोवृति से व्यक्ति-विशेष को आत्म-संतुष्टि अवश्य हो जाती हो। लेकिन ऐसा व्यक्ति सदैव ईर्ष्या की ज्वाला में सुलगता रहता है। उसका अपना लक्ष्य तो पीछे छूट जाता है। नया लक्ष्य बन जाता है कि कहीं कोई और धन-बल, जन-बल में मुझसे आगे ना निकल जाए। इसका सबसे घातक परिणाम होता है कि लोग अपनी अलग-अलग इकाई के रूप में भले ही जाने जाएं। लेकिन सामूहिक रूप से सबकी पहचान, सब का महत्व और सब का अस्तित्व शून्य हो जाता है। इसके बाद अपनी इस पीड़ा के लिए आँसू बहाना कि हम तो राजकीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय पटल पर कहीं दिखते ही नहीं। अपनी मूर्खता जाहिर कर अपने को उपहास का पात्र बनाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
व्यक्तिवादी प्रवृति से सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है हमारा पारिवारिक ढांचा। पुरुष-प्रधान समाज होने के इतिहास के कारण पति, पत्नी को अपने प्रभाव में रखना चाहता है। पत्नी शिक्षित और हर मामले में निपुण होने पर यह सोचने लगी है कि मैं किस बात में कम हूं? फिर मैं क्यों किसी की पराधीनता स्वीकार करूं। दोनों यह भूल जाते हैं पति-पत्नी का नाता बराबरी करने का नहीं, बराबर का होता है। इस सोच से सबसे अधिक प्रभावित हो रही है नई पीढ़ी। यह पीढ़ी अब सिर्फ अपने ही सोचने लगी है। परिवार ही वो प्रारंभिक इकाई है जिसकी गुणवत्ता से समाज और देश की गरिमा आँकी जाती है।
इस व्यक्तिपरक हित ने धर्म को भी GST मुक्त व्यापार का जामा पहना दिया गया है। मूल उद्देश्य बन गया है कि समूचे मुनाफे का अधिकांश खंड अपनी झोली में आ जाए। अपना जन-बल और धन-बल दोनों दूसरों से कहीं अधिक हो जाए। सबसे अधिक विचारणीय यह हो गया है कि वो शक्तियां जो इन सब विकारों, आसक्ति से दूर रखने के लिए हमारी अग्रणी बनती रही हैं। वो भी अब सब इस दौड़ में सब को पीछे ढकेल कर खुद अग्रिम पंक्ति में आने के लिए ऐसी संस्कृति(?) को प्रोत्साहित कर रही हैं।
अब एक ही लक्ष्य है कि अधिकतम जनबल मेरे साथ हो, झंडा मेरे हाथ हो। हित-चिंतकों में मुखौटा पहने कई ऐसे भी हैं जो अपनी “मैं” के लिए अंदर ही अंदर भितरघात में जुटे पड़े हैं। इन्ही कूटनीतिक गतिविधियों से परिवार ही नहीं, पूरा समाज और धर्म एक राजनीति आखाडा बन गया है। जो चिंतित है वे अपने-आपको इन शक्तियों के सामने निरुपाय से अलग-थलग पड़ रहे हैं। 9810568232