लॉकडाउन में शरीर के आवागमन की मर्यादा हो गयी है। जब शरीर मंद पड़ता है तो वाणी स्वच्छंद हो ही जाती है। पूरा विश्व कोरोना से जूझ रहा है। लेकिन ऐसी विषम स्थिति में भी राजनेतिक,सामाजिक, धार्मिक हर क्षेत्र में वाणी की उठक-पठक चरम पर है। वाणी का मूल्य क्या है और उसका अभाव कितना पीड़ादायक हो सकता है, यह वही जान सकते हैं जो वाक-शक्ति से वंचित हैं।
वस्तुत: मनुष्य के जीवन में बोलचाल या बातचीत ही एक ऐसा माध्यम है जिससे हम किसी का प्रेम पा सकते हैं या प्रेम को दूसरों में बांट सकते हैं। प्रेम पाए बिना और प्रेम दिए बिना यह जीवन चल ही नहीं सकता। पुण्य भी प्रेम के पीछे है, हमारे इष्ट भी प्रेम के पीछे हैं। वाणी और वचन पुण्य और इष्ट के बीच एक पुल हैं। अगर हमने इस पुल को जर्जर कर दिया तो प्रेमविहीन होने के साथ हमें न पुण्य प्राप्त होगा न इष्ट।
बिना अच्छे भोजन के अच्छा स्वास्थ्य नहीं, ऐसे ही बिना अच्छे वचन से अच्छा व्यवहार भी नहीं बनता। टूटते परिवार और बिगड़ते संबंधों के पीछे हमारी विकृत वाणी और व्यवहार का ही सबसे बड़ा दोष है। अधिकांश सामाजिक और राजनैतिक विद्वेष, मनोमालिन्य, उपद्रव विषाक्त वचनों का ही परिणाम होते हैं। संसार की सारी उपलब्धियां अगर कम हों तब भी चल सकता है, लेकिन अगर वाणी-लावण्य और स्नेह कम हो गया तब परस्पर साहचर्य की संभावना ही नहीं बचती। वचनों की कटुता प्रेम के मार्ग को अवरुद्ध करती है। हमने अपनी वाणी और व्यवहार द्वारा प्रेम को कितना संभाला है, इसकी एक ही कसौटी है कि -परख कर देखें हमारे साथ जुड़े लोग वास्तव में हमारे प्रशंसक हैं अथवा किसी प्रयोजन हेतु जुड़े निरे चापलूस।
स्वास्थ्य, वस्त्र, भोजन एवं अपने स्टेटस के लिए तो हम पूर्ण रूप से जागरूक हो रहे हैं, लेकिन वाणी की मर्यादा का ग्राफ दिन-प्रतिदिन नीचे की ओर जा रहा है। वाणी की विद्रूपता और दोषारोपण ही विरोध की पर्यायवाची बन गई है। विरोध भी मुद्दों का नहीं व्यक्ति का किया जाने लगा है। बुद्धिमान व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उनके पास बोलने के लिए कुछ होता है, मूर्ख व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ बोलना होता है।
वाणी को वाचाल बनाते समय यह भूल जाते हैं कि जैसी बोली होती है, वैसी ही गूंज होती है। जो भाषा आज हम बोल रहे हैं या बोलने कि अनुमति दे रहे हैं अथवा सिखा रहे हैं वह कालांतर में हमारे लिए भी बोली जा सकती है। सोशलमीडिया ने इस अशोभनीयता को शिखर तक पहुँच दिया है। लोग अपनी दबी हुई कुंठा, हीन भावना का प्रसारण करते रहते हैं। न पद और विद्वत्ता की गरिमा का ध्यान, ना आयु का सम्मान। जिसके जी में जो आता है अपनी स्वार्थ-सिद्धि या अहं के वशीभूत कुछ भी बोल देता है। अक्सर लोग जब किसी के कद के बराबर नहीं हो पाते तब उसके पैरों के नीचे की जमीन खोदकर उसे छोटा बनाने का प्रयास करने लगते हैं।
शरीर के दीपक में चाहे रिद्धि-समृद्धि, धर्म की तेल-बाती मौजूद हो लेकिन जब तक उसमें वाणी की मधुरता की लौ ना लगे तब तक प्रतिष्ठा का प्रकाश अपनी ऊर्जा से जीवन को जगमगा नहीं सकता। संस्कारवान लोग जानते हैं कि दूसरों को सम्मान देना अपने सम्मान में ही वृद्धि करना है। क्योंकि हम जो देते हैं वही लौट कर वापस आता है। शब्दों का भी अपना स्वाद होता है परोसने से पहले खुद चख अवश्य लें।