सड़क किनारे खरबूजो का ढेर देख उस सूफी फकीर का मन खरबूजा खाने को बेताब हो उठा। उसने दुकानदार से कहा –मेरे पास पैसा नहीं है, मुझे मुझे अल्लाह के नाम पर एक खरबूजा दोगे? बड़ी मिन्नत-आरजू के बाद खरबूजे वाले ने खराब हो रहे खरबूजों में से एक खरबूजा दे दिया। खरबूजे की हालत देख फकीर का मन खाने के लिए तैयार नहीं हुआ। लेकिन खाने की इच्छा भी बलवती थी।
अचानक उसे याद आया कि कल किसी मुरीद का दिया हुआ एक टका उसकी पगड़ी में रखा है। फकीर ने पगड़ी से टका निकाल कर खरबूजे वाले को दिया। टका के बदले दुकानदार ने बढ़िया सा खरबूजा फकीर को दे दिया। फकीर ने खरबूजे को आसमान की तरफ दिखा कर कहा -या अल्लाह तेरे नाम पर तो सड़ा-गला खरबूजा मिला था। लेकिन टके ने कितना उम्दा खरबूजा दिलवा दिया। परवरदिगार ! क्या सचमुच “टका” तुझ से भी बड़ा है ?
सच में यह टका, यह पैसा इन दिनों सबसे बड़ा और शक्तिशाली हो गया है। धन एक छठवीं ज्ञानेन्द्रिय हैं, इसके बिना हम पांच अन्य का उपयोग नहीं कर सकते हैं। यह दुर्जन को सज्जन, अधम को परम, शैतान को शरीफ बना सकता है। धन सत्य का मुहं बंद कर सकता है। धर्म को तो बंधक बना लिया है। इसने हमें इंसानियत, कर्तव्य अपने-पराये सब कुछ भुला दिए हैं। हमारी इसी भूल से शायद अब जिंदगी हमें भूलने लग रही है। बाहर में भले ही हमारी सबकी अलग-अलग आस्था राम, कृष्ण, महावीर में हो। लेकिन पैसा वो देवता है जिसका बिना भेद-भाव के हर कोई भीतर से पुजारी है। अर्थ नहीं तो सब व्यर्थ। सारे धार्मिक नैतिक उपदेशों का प्रभाव सारे शास्त्रों का पठन, श्रवण बस शमशान वैराग्य की तरह जितनी देर सुनो, पढ़ो उतने समय तक ही टिकता है। उसके बाद गूंजने लगती है फिर वही मनमोहक सिक्कों की खनक। आस्था, श्रद्धा, भक्ति आधारित सारी प्रक्रियाएं धन पर आश्रित।
जीवन के लिए धन आवश्यक है। लेकिन धन को जीवन का आधार बना कर जीना अनिश्चय में जीना है। क्योंकि लाभ और हानि कभी स्थिर नहीं रहते।–महावीर
धन सर्वोत्तम सेवक है। किंतु जरा सी चूक होने पर अत्यंत निर्दयी स्वामी भी साबित होता है। धन का अभाव अभिशाप है तो धन का आधिक्य जीवन की सुख-शान्ति छीन लेता है। धनवान वो नहीं जिसने अधिक कमाया, उसे धनवान बनाता है कि उसने धन को कैसे खर्च किया। धन और दौलत उसकी भी नहीं है जिसने तिजोरी में रख छोड़ी है अपितु उसकी है जो उसको साधन मान कर जीता है। जितने जोश से धन कमाते हैं उसे खर्च करने में कहीं अधिक होश चाहिए।
मनुष्य धन की कमी से उतना दुखी नहीं है जितना सुव्यवस्थित तरीके से खर्च न करने का कारण दुख पाता है।- महात्मा गांधी।
जैसे भवन की मजबूती और आयु उसकी बुनियाद में लगे पत्थरों पर आधारित होती है उसी तरह धन की दीर्घायु भी न्याय-नीति के सिद्धांत पर टिकी है। न्याय-नीति पूर्ण आय के स्रोत क्षीण हो जाएं तो धन की आमदनी के साथ उसकी सुरक्षा भी आशंकित हो जाती है। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग में पांचवा स्थान सम्यक आजीविका का दर्शाया है, अर्थात आजीविका हेतु धन का उपार्जन नीति के साथ होना अनिवार्य है।
धन गरम बर्तन की तरह है। उसे विवेक की सँड़सी से पकड़ना ही श्रेयस्कर होता है, अन्यथा बहुत ताप देता है। धन के पीछे वर्तमान अविवेकी दौड़ ने सारी मान्यताएं ही बदल दी हैं । पहले युद्ध साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के पोषण हेतु सत्ता के विस्तार के लिए होता था। आज प्रभुसत्ता उसकी है जिसका बाज़ार पर अधिकार है। आधुनिक बजारवाद में अर्थलाभ ही ब्रह्म है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लक्ष्मी स्वरूपा हो गयी हैं। विश्व व्यापार संगठन ही आज का कुबेर है। महा-शक्तियों के बीच चल रहे बाज़ार–विस्तार शीत–युद्ध की परिणति किसी सामरिक युद्ध में होगी या नहीं, यह कोई नहीं जानता। लेकिन इस को लेकर पूरा विश्व आशंकित है।