विचार

पहले बाहर से अपनी सुरक्षा मजबूत की जाए तब अंदर….

-डॉ.निर्मल जैन ( से.नि.जज)

जो तत्पर हैं निज-रक्षा को रक्षित उनके अधिकार रहे।

जो लड़ने  को  तैयार  नहीं वह मिटने  को तैयार रहें॥

भारी वर्षा  से छत टपक रही हो, जलवायु के प्रकोप से दीवारें जर्जर हो रही हों, तेज हवा के झोंकों ने खिड़कियों के शीशे तोड़ दिये हों। तब इन सब की अनदेखी कर कमरे के अंदर उसकी साज-सज्जा में लगा रहना बुद्धिमानी है क्या?  प्रथम कर्तव्य है पहले बाहर से अपनी सुरक्षा मजबूत की जाए तब अंदर शानदार फर्नीचर सजाया जाए।

कुछ ऐसी ही स्थिति से हम और हमारा समाज दो चार हो रहा है। आक्रांता हमारे तीर्थों पर बलात कब्जा कर रहे हैं। हमें दर्शन-पूजन करने और जाने से रोक रहे हैं। हमारे संतों से अभद्रता कर उनकी अवमानना की रही है। देव स्थानों में अवांछित भीड़ घुसकर अमर्यादित कृत्य कर रही है। ठोस सुरक्षा के अभाव में आए दिन  जिनबिम्ब और बहुमूल्य आस्था प्रतीकों की चोरियाँ हो रही हैं। कुल मिलकर हमारी दशा भी उस टपकती छत, गिरती दीवारें, खिड़कियों के टूटे शीशों वाले कक्ष जैसी ही है और हम उसमें अपनी धार्मिक क्रियाओं का कीमती फर्नीचर सजाने में लग रहे हैं।

एक और विडंबना। जब पड़ोसी से कोई झगड़ा होता है तो पूरा परिवार मिलकर सामना करता है। घर के अंदर किसी विवाद में उलझे होते हैं उस समय कोई मिलने आ जाए तो विवाद भूल चेहरों का भूगोल दुरुस्त कर मुस्करा कर स्वागत करते हैं। लेकिन जब हमारे आस्था-श्रद्धा के घर में बाहरी घुसपैठ होती है तब क्यों हम उसको नजरअंदाज कर आपसी मनभेदों में ही उलझे रहते हैं। शायद हमें अपने आस्था, श्रद्धा के आयतनों से उतना लगाव नहीं जितना अपने घर परिवार और उसकी मर्यादा से है।   

परिस्थितियाँ चीख -चीख कर पुकार रही हैं कि अपने विवेक से प्राथमिकताओं का चयन करें।  इन विषम हालात में कक्ष में उतना ही जरूरी सामान रखें जितने से काम चल जाए और बाकी समय और संसाधन अपने कक्ष अर्थात समाज, तीर्थ-क्षेत्र, साधु-संत, आस्था-श्रद्धा की मर्यादा को पुष्ट करने, सुरक्षित रखने में प्रयोग करें। कोई अपवाद विशेष को छोड़ दें तो अस्त व्यस्त घर में रहन सुखकर नहीं हो सकता। व्याकुल शरीर के साथ मन निराकुल नहीं रह सकता और बिना मन की निराकुलता के आस्था-श्रद्धा की संपूर्ण प्रक्रियायें निरर्थक और निष्प्रभावी ही होंगी।

बिलकुल इसी तरह जब देवस्थान, तीर्थस्थान के अंदर, बाहर का वातावरण अशांत होगा तो दर्शन, वंदन मात्र एक पिकनिक के अलावा और कुछ नहीं। प्रभु कृपा करें कि वो दिन  देखने न मिले, अगर आक्रांताओं, अवांछित तत्वों को रोका नहीं गया, उनकी ऐसे ही हौसला अफजाई होती रही तो जिनकी आज वंदना कर रहे हैं, उन पवित्र स्थलों को श्री गिरनार जी की तरह ढूंढते ही न रह जाएँ। प्रभु हमें सद्बुद्धि दो।

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