खातेगांव म.प्र: मुनि श्री निस्पृहसागरजी महाराज ने कहा पर्युषण पर्व की सार्थकता तभी है जब हमारे अन्तर्मन में परिवर्तन हो। श्रावक और साधु धर्मरूपी रथ के दो पहिए है। जो श्रावक सन्तोषी है वही शौच धर्म का पालन कर लोभ से निवृति कर सकता है। साधु व श्रावक दोनो लोभी है होते है किंतु साधु का लोभ प्रशस्त लोभ होता है जैसे शिक्षा का लोभ, दीक्षा का लोभ, अच्छे गुरु को पाने का लोभ, मुनिराज बनने का लोभ, तीर्थो की वंदना का लोभ, स्वाध्याय का लोभ, वंदना का लोभ और इससे भी बढ़कर तीर्थ बनाने का लोभ आदि ये प्रशस्त लोभ है। श्रावक यदि सन्तोषी नही है तो असका लोभ अप्रशस्त है। मुनि श्री ने कहा लोभ पाप का बाप होता है सभी पाप का मूल कारण लोभ ही है। श्रावक को चाहिए कि वह इससे विरक्त हो।
