एक संत विहार करते हुए रास्ते में एक बहुत ही आकर्षक रूप से सजी-धजी दुकान के सामने से गुजरे। दुकान में अनेक छोटे-बड़े डिब्बे उसमें रखे सामान के नाम की चिट सहित बड़े सलीके से लगे हुए थे। संत ने देखा अंत में रखे एक डिब्बे पर कोई चिट नहीं लगी थी। संत ने उस डिब्बे की ओर इशारा करते हुए दुकानदार से पूछा- इस डिब्बे पर कोई चिट नहीं लगी है, इसमें क्या है?”
दुकानदार बोला -उसमें प्रभु हैं।
संत ने हैरान होते हुये पूछा -प्रभु! भला यह प्रभु भी बाज़ार में रखने वाला कोई पदार्थ है? क्या इसे भी बेचते हो?
दुकानदार संत के भोलेपन पर हंस कर बोला- गुरुवर प्रभु न तो खरीदे जा सकते हैं न ही वे बिकाऊ हैं। भावनाओं और आस्था के अतिरिक्त किसी भी सांसारिक पदार्थ से उनका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। जो डिब्बा खाली होता है हम उस खाली को खाली नहीं कहकर मन ही मन प्रभु का नाम देते हैं। क्योंकि खाली में ही प्रभु बसते है।
सच है कोई स्थान हो, डिब्बा हो या कोई आयतन हो अगर भरे हुए हैं तो उनमें प्रभु को स्थान कहाँ? ऐसे ही जब हमारा दिल-दिमाग काम, क्रोध, लोभ, मोह, लालच, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और भली-बुरी, सुख-दुख की बातों से भरा रहेगा तो उसमें भी प्रभु का वास कैसे होगा?
यह एक प्रतीकात्मक कथा है। जो एक साधारण से व्यापारिक व्यक्तित्व द्वारा हमारे मनोमस्तिष्क की चेतना को महा-ज्ञान का संदेश देती है। इन दिनों हमारी धार्मिक प्रक्रियाओं से धर्म और प्रभु का जो स्वरूप दिखाई देता है उससे वास्तव में ही धर्म और प्रभु को क्रय-विक्रय की वस्तु होने जैसा आभास होता है। हर जन-मानस इस असमंजस में है कि वास्तव में धर्म क्या है? क्या वो जो मूल पुराणों, धर्म-ग्रन्थों में वर्णित है या जैसा कि इन दिनों हमारे क्रिया-कलाप दिखाते हैं। मात्र मंदिर मे जाकर पूजा-आरती, विधान-अनुष्ठान- व्रत करना करना है? तपस्या करना है? या कुछ भोज्य पदार्थों का त्याग और तीर्थयात्रा करना तक ही सीमित हो गया है?
सही अर्थ में इन चीजों का उद्देश्य स्वभाव को बदलना है। लेकिन हम जीवन भर यह क्रियाऐं करते करते मात्र इन्हे ही धर्म बना लेते है। स्वभाव में परिवर्तन नहीं ला पा रहे हैं। अपने अहंकार को छोड़कर सरल नहीं बनते हैं। क्रोध छोड़कर विनम्रता धारण नहीं करते। उदारता से दूर ईर्ष्यालु बने रहते हैं। शरीर से धर्म करते रहें, लेकिन जब तक अपने अंतर को बदलने के लिए दृढ़ निश्चय नहीं करते तब तक, कठोर सच्चाई यह है कि कोई भी भगवान, गुरु या धर्म हमारा कुछ भी भला नहीं कर सकते। इसलिए सबसे पहले अपने आपको बदलें, अपना स्वभाव बदलें और भाव बदलें। परिणाम तभी मिलेगा।
यह बदलाव भी धार्मिक प्रक्रिया करते समय तक सीमित ही न हो। उसे व्यवहारिक जगत में भी अपने भावों को, विचारों को सकारात्मक बनाए रखें। किसी से भी वार्ता करें, संवाद करें अथवा धर्म-श्रवण करें हमारा किरदार श्रोता के रूप में हो न कि सरोता के रूप में। अर्थात श्रोता बन कर सुने, जो भी विवेक कि कसौटी पर खरी उतरे बिना किसी पूर्वाग्रह, दुराग्रह के उसे ग्रहण करें और यथासंभव आचरण भी करें। सरोता कि तरह नहीं कि उसके संपर्क में जो भी आता है उसे काटता ही है।
हमारी हर प्रक्रिया चाहे साधना से संबंधित हो अथवा धार्मिक संस्था या संगठन से जुड़ी हो। हमारे भाव पूर्णतया जोड़ने के ही होने चाहिए, तोड़ने अथवा किसी की अवमानना या किसी से अपने को ऊंचा दिखाने के लिए नहीं। हमारा अपना उसमें लेशमात्र भी निजि हित-स्वार्थ, निजि अनुशंसा-प्रशंसा का उद्देश्य नीबू की एक बूंद की तरह संपूर्ण श्रम-साधना के प्रयासों के दूध की मिठास को दही की खटास में परिवर्तित कर देगा। समय कि मांग है धार्मिक के साथ नैतिक होना भी अनिवार्यता है।