वह सब कुछ जो अच्छा नहीं है केवल इसलिए अच्छा नहीं बन जाता कि हम उसे पसंद करते हैं या हमारे मन को भाता है। विकार उत्पन्न करने वाले पेय और खाद्य-पदार्थ मात्र इसलिए स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं हो जाते कि वे हमें स्वादिष्ट लगते हैं। अच्छा होना अलग बात है और अच्छा लगना उसके बिलकुल अलग है।
यह जो हमारा मन है न बहुत चतुर है। इसे अगर दुर्गुण भी पसंद हैं तो शब्दों का हेर-फेर कर उनको अपने हिसाब से परिभाषित कर लेता है। धर्म कहता है कि क्रोध, मान, माया और लोभ यह हमारे मन की विकृत्तियाँ हैं। लेकिन मन को जिससे लगाव है लोकलाज को तिलांजलि देकर किसी न किसी बहाने उनका नाम, रूप बदल कर उससे जुड़ाव रखता ही है।
क्रोध, क्रोधकर्ता को भी नष्ट कर देता है। लेकिन क्रोध से मन की तुष्टि होती है तो आधुनिकता के रंग में रंगा मन क्रोध के पक्ष में दलील देता है -कि क्रोध तो “कंट्रोलिंग पावर” है। क्रोध न किया जाए तो अनुशासनहीनता बढ़ेगी। लोग बिगड़ जायेंगे। कंट्रोल करने के लिए क्रोध करना ही पड़ेगा।
रहने के लिए एक कुटिया भी काफी है लेकिन अहंकार के लिए राज-भवन भी कम होता है। मन को ऐश-ओ-आराम चाहिए तो मन ने अपना हित साधने को अहंकार को “स्टैटस-सिंबल” का ताज पहना दिया। अब समाज में स्टेटस बनाए रखना तो ज़रूरी है ही। जब हम अहंकार को अहंकार माने ही नहीं तो दोषी कैसे और किसके?
कर्म हो या धर्म हमारे जीवन से मायाचार इतना हिलमिल गया है कि बिना इसके जीवन-व्यवहार और व्यापार की कल्पना ही नहीं की जा सकती। रावण ने भी मायावी रूप धर सीता हरण किया था। यही माया हमारी सुख-शान्ति और जीवन के सारे मूल्यों का हरण करने पर तुली है। लेकिन मन है कि इस प्रेयसी से नाता तोड़ने को राजी ही नहीं। लांछन न लगे इसलिए मायाचार को अब मायाचार नहीं आधुनिक “सेल्समेनशिप” कहा जाने लगा है। कर लो जो करना है।
पेट भरने को दो रोटियां ही पर्याप्त हैं। मगर लोभ की पेटी भरने को तीन लोक की संपदा भी कम होती है। मन नें अपने इस प्रिय मित्र को भी “इंवेस्टमेंट” पूंजी निवेश नाम से अलंकृत कर दिया है। हिमायत में कहता है कि अगर इंवेस्टमेंट न किया जाये तो पूंजी का प्रवाह और विकास की गति दोने रुक जायेंगी। लोभ जो कभी पाप का बाप कहाता था हमारी ज़रूरत बन गया।
नाम परिवर्तन से गुण-दोष नहीं बदलते। नीम को किसी भी नाम से पुकारो कड़ुवा ही रहेगा। गुलाब को कोई कितना भी नकारे *गुलाब महकेगा ही*। हमारे पसंद करने से कोई भी बुराई अच्छाई नहीं बन जायेगी। उधार के ज्ञान से कोई ज्ञानी नहीं बन जाता। अज्ञानी को ज्ञानी नाम से पुकारने पर उसमें ज्ञान का भंडारण नहीं हो जाता।
हम सब को धोखा दे सकते हैं लेकिन अपने को नहीं। इसलिए हम जो भी दुर्गुण अपनाते हैं या कुछ अप्रिय करते हैं, सही न होने पर भी कोई हमें सही लगता है तो बिना किसी बहानेबाजी के सीधे स्वीकारें कि हम यह सब इसलिए करते हैं कि *इन सब से हमारा हित सधता है*। *सरल दिखे ही नहीं अपितु सरल रहें भी, क्योंकि प्रभु के सामने तो न हमारा छद्म रूप चल सकता है, न छद्म नाम, न छद्म ज्ञान।