लेखक-डॉ. निर्मल जैन
संसार में दो तरह के लोग होते हैं एक धार्मिक और दूसरे धर्मात्मा। धार्मिक लोग वह होते हैं जो अपने आप को धार्मिक क्रियाओं तक ही सीमित रखते हैं। धर्मात्मा प्रवृत्ति वाले धर्म को अपनी आत्मा में बसा लेते हैं। धार्मिक-क्रिया करना और धर्म को आत्मा में बसा लेना दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। धार्मिक क्रिया करने वाले तो मात्र कुछ समय की प्रक्रिया के द्वारा सीमित समय के लिए धर्म को जीते हैं। जबकि धर्म को आत्मा में बसा कर जीवन को धर्म के साथ जीना पूरे जीवन के रूपान्तरण का प्रयोग होता है। सीमित समय के साथ धर्म के साथ रहना उतने समय के लिए हमारा रूप तो धार्मिक अवश्य बना देता है जबकि हरपल धर्म के साथ जीना व्यक्तित्व में एक देदीप्यमान आभामंडल का निर्माण करता है।
धर्म को किसी समय सीमा या स्थान विशेष कि परिधि में नहीं बांधा जा सकता। ये तो जीवन की हर क्रिया, हर पल का सहचर है। यह हमारी सपूर्ण गतिविधियों को संयमित, नियंत्रित रखता है। यह हमारे बांस रूपी जीवन को बांसुरी का रूप देता है? बांस का उपयोग केवल अंतिम संस्कार के समय करते हैं बांसुरी की मनमोहक स्वर लहरी आत्म मुग्ध कर देती है। हमारा जीवन अंतिम संस्कार के लिए नहीं अपितु अंतिम समय तक परार्थ और परमार्थ के लिए मिला अनमोल उपहार है।
कुछ लोग इसलिए धर्म करते हैं कि धर्म करने से हमारा परलोक सुधर जायेगा और कुछ लोग इसलिए धर्म करते हैं कि धर्म पर चलने से हमारा जीवन सुधर जायेगा। यहाँ हम परलोक को समझने के लिये भविष्य और जीवन सुधारने को वर्तमान कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भविष्य को सुधारने के लिए वर्तमान का सुधरना अनिवार्य शर्त है।
हम संसारी मनुष्यों की कुछ ऐसी दयनीय दशा हो गई है जैसे, मोज़े मुख्य बन जाए पैर गौण हो जाएं। चश्मा प्रथम स्थान पर बैठ जाए आंखें नेपथ्य में चली जाएं। मकान इतना भव्य हो कि लोग मकान मालिक को ही भूल जाएं। भोज्य-पदार्थों के पीछे इस हद तक का पागलपन जुड़ जाए कि स्वास्थ्य और पाचन-शक्ति की उपेक्षा कर दें। साधन के स्थान पर बैठा पैसा साध्य के स्थान पर बैठा लिया जाए और साधना दूसरे नंबर पर रह जाए। प्रतिमा से अधिक महत्व पूर्ण और मूल्यवान सिंहासन हो जाए। धर्म किए जाने से अधिक धर्म को किया जाने का प्रदर्शन प्रथम उद्देश्य हो जाए। क्या हमारी यही नादानियां तो हमारे दुखों का कारण नहीं है?
क्या इन सब का ही दुष्परिणाम तो हम नहीं भोग रहे कि धर्माधिकारी, गुरु, मौलवी, पादरी, मंदिर, मठ आदि के रूप में धर्म की सत्ता सिर्फ आध्यात्मिक न रह उसकी एक भौतिक सत्ता भी विकसित हो चुकी है। ईश्वर या अंतर्चेतना से हम सबका रिश्ता टूट गया है। बिचौलिये ही सारे निर्णयों पर हावी हो गए हैं। धर्म किसी पंथ, संप्रदाय या गुरु की व्यक्तिगत संपत्ति हो गया है। हम तबलीगी-जमाती बन कर नेत्रहीनों की तरह इन के ही डंडों से हाँके जा रहे हैं। ये बिचौलिये ही बताने लगते हैं कि धर्म क्या है, धर्मचर्या क्या है, क्या नहीं है। इन्ही के कहने पर शासन-प्रशासन के निर्देशों कि अवहेलना कर अदृश्य कल को सुधारने के लिए अपने आज को, जनमानुष के स्वास्थ्य को दाव पर लगा कर धार्मिक क्रियाओं के प्रति उन्मादी, जिहादी बन रहे हैं।
देवप्रभु महावीर ने कभी अपना अनुयायी बनने की बात नहीं कही। वह तो हम सबको अपना अनुगामी बनाते हैं। वे अति दूरदृष्टा थे। वे जानते थे कि ड्राइवर के पीछे बैठने से कभी ड्राइविंग नहीं आती अपितु प्रशिक्षित ड्राइवर के साथ बैठ कर स्वयं चलाने पर ही सीखेंगे।
जज (से.नि.)
डॉ. निर्मल जैन