शजर अंदर ही अंदर जाफरानी हो गया है।
बहुत मुश्किल है शाखों पर पत्तों का हरा रहना।
महाभारत धर्म-महायुद्ध की घटायें तो युगों पहले हस्तिनापुर के आकाश में अठारह दिन तक कुरुक्षेत्र पर घिर कर, बरस कर समाप्त हो गयीं। लेकिन हमारी सबकी अपनी देह के हस्तिनापुर में आज भी एक महाभारत सुलग रहा है। “दुराग्रह का दुर्योधन” कहीं भी तनिक झुकने को तैयार नहीं है। अंतर में एक प्रश्न चीख कर कह रहा है कि अगर यह धर्म के लिए ही युद्ध था तो क्या उस युद्ध के बाद अधर्म का, दुशासन का नाश हो गया? आज भी संशय में डोलते हुये सिंहासन रूपी मन पर अंधी वासनाओं का “धृष्ट-धृतराष्ट्र” शासन कर रहा है। अब भी कर्ण नदियों में बहते हुए पाए जाते हैं। घरों में कुंती मां आज भी निश्चिंत नहीं सोती है। “नेतिकता की पॉचाली” आज भी “दुराचार के दुशासन” से आहत और अपमानित हो रही है।
समय की पुकार “कुंठा के कर्ण” के कानों तक पहुँच ही नहीं पा रही है। विरोध का स्वर बलात् दबा कर गूंगा बना दिया गया है। “पंचशील के पांडव” कभी के निष्कासित कर दिए गए हैं। आत्म-विस्मृति की पट्टी बांधे “संवेग की गांधारी” ने ऑखें होते हुए भी अंधी हो कर जीने का संकल्प ले लिया है। “करुणा रूपी कुंती” का मातृत्व का ऑचल-लॉछन की लपटों में झुलस रहा है। हठाग्रहों के नक्कारखानों में “विदुर” की वाणी सुनने वाला अब कोई नहीं है। यदि बीते कल में भी और आज भी सब यथावत है, तो युद्ध का औचित्य क्या? केवल यही समाधान है? हठधर्मिता छोड़ कर सोचें तो और भी विकल्प हैं ।
त्याग करना हम भूल चुके हैं। दुर्योधन का यह दुराग्रही उत्तर आज भी हमारी जिव्हा के अग्रिम भाग पर विराजमान रहता है।-माधव! सुई की नोंक, जितनी धरती को भेधती है, पांडवों के लिए हम उतनी धरती का परित्याग करने के लिए भी तैयार नहीं हैं। स्थिति गंभीर तो है लेकिन निराशा जनक नहीं। आशा के अंधकार को अभी स्वार्थपरता और अनुत्साह के अंधकार ने पूरी तरह आच्छादित नहीं किया है। विनाश को टालने के लिए, शांति की स्थापना के लिए अहिंसा, जिओ और जीने दो, अनेकांत, और गीता, रामायण के प्रस्ताव इस देह के हस्तिनापुर में आज भी गूंज रहे हैं। पुराणों और संहिताओं में से प्रकट हो मुनिगण और संतों की वाणी में “स्यद्वाद और परस्परोपग्रहो जीवानाम” के शाश्वत संदेश हमें सुनाई दे रहे हैं। स्वर भले ही बदल गए हों, भाषा भिन्न लगती हो पर हमारे अंतस के महाभारत को टालने के लिए सब का परामर्श वही है।
इन सभी रूपों में वात्सल्य के वासुदेव की आज भी वही -दरिद्रता के भंडार, जिनसे हमें कूड़ा-करकट और खरपतवार के अलावा कंटकों की कसक, वासना की बाढ़, उद्धेगों की आंधी और पश्चाताप की दाह के सिवा न कभी कुछ मिला है और न कुछ मिल सकता है, उन्ही पॉंच ग्राम की मांग है। आज के सन्दर्भ में वे पॉंच ग्राम हैं- 1-हिंसा, 2-झूठ 3-चोरी 4-कुशील और 5-परिग्रह। जिन्हे त्याग कर हम अपने अंतर के कुरुक्षेत्र को विस्फोट से बचा सकते हैं।
लेकिन अथक प्रयासों के बाद भी ऐसा हो नहीं पा रहा है। क्योंकि हम शौर्टकट के चंगुल से निकल नहीं पा रहे हैं। निंदा और नर्क से भयभीत सुनियोजित सम्मोहन के वशीभूत एक ऐसे धार्मिक पांडाल के तले सांस ले रहे हैं जहां अहिंसा और अपरिग्रह पर प्रवचन रोज सुनाये जाते हैं। लेकिन भाव(की) हिंसा कर अग्रिम पंक्ति में गले में सम्मान हार पहनाते समय धनवत्ता इन सारे गुणवत्ता पर बाजी मार ले जाता है। आशीषों का प्रथम तिलक धन के ललाट पर ही अंकित होता है।
हमने इन दिनों जिसे धर्म की संज्ञा दे राखी है वो धर्म केवल 2 आधुनिक विभूतियों (?) के लिए सिमट कर रह गया है। एक वह जो आधुनिक विद्वान(?) हैं, दूसरे वे जो नव-धनवान हैं। थक चुके हैं योग्यता के पांव, अब तो चाटुकारिता ही है निपुणता की निशानी। गुण-ग्राहकता स्वर्ण की तुला पर तुलती है। बुद्धिजीवियों के हवन कुंड में जितनी बड़ी धन की आहुति डालो उतनी बड़ी उपाधि पालो। हमने जनधर्म को निजधर्म और धनधर्म का रूप दे दिया। हमारे परिवार में श्वेतांबर जन्म लेते हैं। दिगंबर पैदा होते हैं, विभिन्न पंथ और आमनाय के अनुयायी अवतरित होते हैं। लेकिन महावीर के अनुगामी पैदा नहीं होते।
जब तक हम अपनी मुक्ति/ सफलता के लिए मंदिर में चढ़ावा चढ़ा कर भगवान को रिश्वत देते रहेंगे, अपने को ही सर्वोच्च मान कर बाकी सभी की आलोचना कर नीचा दिखाते रहेंगे तब तक हमारी संस्कृति, हमारी विचारधारा लोकप्रियता के शिखर पर कभी भी नहीं जाएगी। गिनतियों के फेर में फंस कर गिनने लायक भी नहीं बचेंगे। धर्म शिखर पर पहुंचेगा तब, जब धर्म व्यावसायिक बखान से नहीं धर्म-आचरण द्वारा प्रत्यक्ष दिखाई देगा। धर्महम सब का है उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी हमारी सबकी है। यशोगान, कल्पित कर्मकांड और प्रदर्शन से निकल कर निजि-हितों से दूर, केवल कुछ के भरोसे न बैठ, धर्म को उसके मूल रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए हम सभी को प्रतिबद्ध होना होगा।
बात यह भी कमाल की है कि बिखरे अंदर से हैं, अपने को संवार रहे हैं बाहर से।
लेखक सेवा निर्वत्त न्यायाधीश है
संपर्क सूत्र : 9810568232
डॉ. निर्मल जैन, जज (से.नि.)