विचार

जो जोड़ने का सोपान है उसे लेकर इतनी तोड़-फोड़ क्यों ? -डॉ. निर्मल जैन

सूर्य के दर्शन के लिए दीपक जलाने की मूर्खता कोई नहीं करता। फूल की खुशबू का अनुभव करने के लिए हम कभी आंखो का उपयोग नहीं करते। परंतु जो सभी तर्कों के आधार है, हर समस्या का समाधान है  उस परम आत्मा, दिव्य-शक्ति को समझने हेतु इतने तर्क-वितर्क का सहारा क्यों लेते हैं? उस का ज़िक्र होते ही क्यों उसे कितने नामों से, रूपों में  संबोधित किया जाने लगता है?  

उस को समझना है तो हमें ह्रदय-चक्षु को चेतन्य करना होगा। और ये धर्म! धर्म तो केवल उसे जानने और अनुभव करने का एक तरीका है। उस दिव्य-शक्ति की अनुभूति के विभिन्न मार्गो को ही विविध धर्मों के नाम से जाना जाता है। चूंकि वो अनादि है, अनंत है  इसलिए उसे जानने और अनुभव करने के तरीके भी अनंत हैं। भले ही उसे अलग-अलग रूपों में अनुभव किया जाता हो, उसे याद करने की क्रिया, कृतियों में भिन्नता हो पर सभी ने उसके उपकारी अस्तित्व को स्वीकार किया है।

हम किसी भी नाम या रूप के द्वारा उससे जुड़ सकते हैं। महत्वपूर्ण उससे  जुड़ना है।  एक आदमी महज एक ही दिन में अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हुए अलग-अलग नाम से जाना जाता है। कार्य क्षेत्र में बॉस के नाम से, घर आते ही पत्नी प्रिय और बच्चे पापा कह कर बुलाते हैं। दोस्त उसके नाम से पुकारते हैं, माता-पिता बेटा कहते हैं।

आश्चर्य की बात है ना !  आदमी एक और एक ही दिन में उसके इतने सारे नाम और रिश्ते। तब  उस की कल्पना करें जिससे पूरे संसार में अनगिनत लोग रिश्ता जोड़ते आ रहे हैं , तो अवश्यंभावी है कि उस के साथ हमारी अनंत भूमिकाएं, नाम, संबोधन  और रिश्ते हो सकते हैं।  बस, मायने सिर्फ यह रखता है कि हम उससे जुड़ें।

जिस तरह गंगा यह ध्यान नहीं देतीं कि आप उनके जल में कैसे समाये ? वैसे ही वो भी बस यह चाहता  है कि हम, आप उससे जुड़ें। किसी भी नाम से, किसी भी रूप में, किसी भी तरीके से या फिर किसी नाम और रूप के बिना। जुडने से तात्पर्य उसके निर्देश उसके आचरण के अनुगामी बनें।

लाओत्से ने कहा है -मनुष्य उसके स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकता। वह अवर्णनीय है। उसका कोई नाम नहीं है। जो उसे अपनी भाषा के शब्दों में जानते हैं वह उसे नहीं जानते। वह शब्दों की पकड़ से बाहर, व्याख्या के परे है। वह एकमेव सत्य हैं ना तो उसका आरंभ है और ना ही अंत।
दुःख-सुख तो मनुष्य सिर्फ अपने कर्मों के अनुसार ही भोगता है। वो परम-आत्मा तो केवल हमें सही मार्ग को पहचानने का एक माध्यम मात्र है। उस को मानने पूजने का सिर्फ एक ही कारण है वो अनेक रूप होते हुए भी अपने सभी जीव मात्र से एक सा अनुराग रखता है। हम ने ही उसे  संप्रदाय, पन्थ के वाद-विवाद में फंसा दिया है इसलिए सत्य की पहचान धुंधली हो रही है।
कहते सब यही  हैं कि -सब का मालिक ‘एक’ ही है। तो उस एक को समझने में इतनी विविधता, विचित्रता क्यों और विरोधी-भाव किसलिए? जो सबको जोड़ने का सोपान है उसे लेकर इतनी तोड़-फोड़ क्यों? उसके नाम पर मानवीय मूल्यों की बलि क्यों? जो जुड़े हुये हैं उन्हे ही बांटने की साजिश क्यों?  जड़ों को काट-छांट कर क्या वृक्ष की डालियाँ हरे-भरे रहने की सोच सकती हैं?
संभव ही नहीं। तो फिर  इसका एक ही कारण है हमारा विवेकहीन होना, हमारी अनुभव हीनता और अहंकार की दृढ़ता। अथवा अपनी एक नई पहचान बनाने का कुत्सित प्रयास। जो सबका है वो तो कभी ऐसा नहीं चाहेगा। जैसे ही हम अपने स्वार्थ के इन सारे पर्दों को हटा कर  उसे उसके मूल रूप में आत्मसात करेंगे तो उसका व्यापक, शाश्वत-स्वरूप स्वयं ही उजागर हो कर बाहर आ जायेगा। वो जो सबको अलग-अलग महसूस होता है एकाकार, एकरूप हो जाएगा । 

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