सूर्य के दर्शन के लिए दीपक जलाने की मूर्खता कोई नहीं करता। फूल की खुशबू का अनुभव करने के लिए हम कभी आंखो का उपयोग नहीं करते। परंतु जो सभी तर्कों के आधार है, हर समस्या का समाधान है उस परम आत्मा, दिव्य-शक्ति को समझने हेतु इतने तर्क-वितर्क का सहारा क्यों लेते हैं? उस का ज़िक्र होते ही क्यों उसे कितने नामों से, रूपों में संबोधित किया जाने लगता है?
उस को समझना है तो हमें ह्रदय-चक्षु को चेतन्य करना होगा। और ये धर्म! धर्म तो केवल उसे जानने और अनुभव करने का एक तरीका है। उस दिव्य-शक्ति की अनुभूति के विभिन्न मार्गो को ही विविध धर्मों के नाम से जाना जाता है। चूंकि वो अनादि है, अनंत है इसलिए उसे जानने और अनुभव करने के तरीके भी अनंत हैं। भले ही उसे अलग-अलग रूपों में अनुभव किया जाता हो, उसे याद करने की क्रिया, कृतियों में भिन्नता हो पर सभी ने उसके उपकारी अस्तित्व को स्वीकार किया है।
हम किसी भी नाम या रूप के द्वारा उससे जुड़ सकते हैं। महत्वपूर्ण उससे जुड़ना है। एक आदमी महज एक ही दिन में अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हुए अलग-अलग नाम से जाना जाता है। कार्य क्षेत्र में बॉस के नाम से, घर आते ही पत्नी प्रिय और बच्चे पापा कह कर बुलाते हैं। दोस्त उसके नाम से पुकारते हैं, माता-पिता बेटा कहते हैं।
आश्चर्य की बात है ना ! आदमी एक और एक ही दिन में उसके इतने सारे नाम और रिश्ते। तब उस की कल्पना करें जिससे पूरे संसार में अनगिनत लोग रिश्ता जोड़ते आ रहे हैं , तो अवश्यंभावी है कि उस के साथ हमारी अनंत भूमिकाएं, नाम, संबोधन और रिश्ते हो सकते हैं। बस, मायने सिर्फ यह रखता है कि हम उससे जुड़ें।
जिस तरह गंगा यह ध्यान नहीं देतीं कि आप उनके जल में कैसे समाये ? वैसे ही वो भी बस यह चाहता है कि हम, आप उससे जुड़ें। किसी भी नाम से, किसी भी रूप में, किसी भी तरीके से या फिर किसी नाम और रूप के बिना। जुडने से तात्पर्य उसके निर्देश उसके आचरण के अनुगामी बनें।