– वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
जैन धर्म की ऐतहासिकता के अलावा जैन धर्म के सिद्धांत, दर्शन के बारे में बहुत से लोग अनिभिज्ञ हैं। जैन धर्म कर्मवाद/भाव पर अधिक ध्यान देता हैं। संसार यानी भृमण करना, और मुक्ति यानी इस भृमण से मुक्त होना। मानव मोह के कारण संसार में घूमता हैं मोह रूपी सम्राट के दो सेनापति राग -द्वेष हैं। हर मनुष्य हर क्षण किसी से राग करता हैं और या किसी से द्वेष करता हैं जिसके कारण दुखी रहता हैं, इनकी असमानता के कारण संसार में भटकता हैं। इनमे साम्यता, वीतरागता, अहिंसा भाव को अपनी जीवन में लाना ही मुक्ति का कारण हैं।
जैन धर्म में भगवान अरिहन्त (केवली) और सिद्ध (मुक्त आत्माएँ) को कहा जाता है। जैन धर्म इस ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति, निर्माण या रखरखाव के लिए जिम्मेदार किसी निर्माता ईश्वर या शक्ति की धारणा को खारिज करता है। जैन दर्शन के अनुसार, यह लोक और इसके छह द्रव्य (जीव, पुद्गल, आकाश, काल, धर्म, और अधर्म) हमेशा से है और इनका अस्तित्व हमेशा रहेगा। यह ब्रह्माण्ड स्वयं संचालित है और सार्वभौमिक प्राकृतिक क़ानूनों पर चलता है।
जैन दर्शन के अनुसार भगवान, एक अमूर्तिक वस्तु एक मूर्तिक वस्तु (ब्रह्माण्ड) का निर्माण नहीं कर सकती। जैन ग्रंथों में देवों (स्वर्ग निवासियों) का एक विस्तृत विवरण मिलता है, लेकिन इन प्राणियों को रचनाकारों के रूप में नहीं देखा जाता है: वे भी दुखों के अधीन हैं और अन्य सभी जीवित प्राणियों की तरह, अपनी आयु पूरी कर अंत में मर जाते है। जैन धर्म के अनुसार इस सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया। देवी, देवताओं जो स्वर्ग में है वह अपने अच्छे कर्मों के कारण वहाँ है और भगवान नहीं माने जा सकते। यह देवी, देवता एक निश्चित समय के लिए वहाँ है और यह भी मरण उपरांत मनुष्य बनकर ही मोक्ष जा सकते है।
जैन धर्म के अनुसार हर आत्मा का असली स्वभाव भगवंता है और हर आत्मा में अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान और अनंत सुख है। आत्मा और कर्म पुद्गल के बंधन के कारण यह गुण प्रकट नहीं हो पाते। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र के माध्यम से आत्मा के इस राज्य को प्राप्त किया जा सकता है। इन रत्नत्रय के धारक को भगवान कहा जाता है। एक भगवान, इस प्रकार एक मुक्त आत्मा हो जाता है – दुख से मुक्ति, पुनर्जन्म, दुनिया, कर्म और अंत में शरीर से भी मुक्ति। इसे निर्वाण या मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार, जैन धर्म में अनंत भगवान है, सब बराबर, मुक्त, और सभी गुण की अभिव्यक्ति में अनंत हैं।
जैन दर्शन के अनुसार, कर्म प्रकृति के मौलिक कण होते हैं। जिन्होंने कर्मों का हनन कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उन्हें अरिहन्त कहते है। तीर्थंकर विशेष अरिहन्त होते है जो ‘धर्म तीर्थ’ की रचना करते है, यानी की जो अन्य जीवों को मोक्ष-मार्ग दिखाते है। जैन धर्म किसी भी सर्वोच्च जीव पर निर्भरता नहीं सिखाता। तीर्थंकर आत्मज्ञान के लिए रास्ता दिखाते है, लेकिन ज्ञान के लिए संघर्ष ख़ुद ही करना पड़ता है।