चिंता हमारे जीवन की असहज परिणीति है। चिंता कब आ जाती है पता नहीं चलता और हम पर बुरी तरह हावी हो जाती है। यह चिंतनीय हो जाती है आज के समय सभी चिंता मग्न दिख रहे हैं कि लॉक डाउन कब खुलेगा। चिंता जीवन की असहज परिणीति है। यह मन की शांति और प्रसन्नता को लील जाती है।यह बात भाग्योदय तीर्थ में विराजमान मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज ने लाइव प्रवचन में कही।
उन्होंने कहा चिंता में मनुष्य की नींद उड़ जाती है। चिंता की वजह क्या है। चिंता सबके मन में आती है पर किसी के मन में चिंता की प्रगाढ़ता आती है और चिंता करना और चिंता में मग्न होना दोनों में अंतर है। सामान्य चिंता उसे चिंतन की ओर ले जाती है। चिंता से चिंतन में जाता है वह समाधान पाता है और जो चिंतन में रूढ़ हो जाता है इसलिए वह डूब जाता है। समस्या को देखकर रास्ता देखना अज्ञानता है।
मुनिश्री ने कहा आत्मविश्वास हो तो कोई भी समस्या से उसका निदान खोज लेता है। संत कहते है कि आत्मविश्वास को प्रगाढ़ बनाओ तो चिंता नहीं होगी। कोविड-19 से वह लोग जल्दी स्वस्थ हो गए हैं जिनका आत्मविश्वास अच्छा था। आत्मविश्वास हमारा इम्यून सिस्टम मजबूत रखता है और यही आत्मविश्वास हमारी जटिल से जटिल समस्याओं को हल कर आता है। जीवन क्षेत्र में जो आत्मविश्वास से लबरेज होता है उसके सामने कभी समस्याएं नहीं आती हैं। जिनका आत्मविश्वास कमजोर होता है वे चिंता से डूब और दब जाते हैं। मनुष्य को नकारात्मक सोच प्रायः चिंता में डालती है। वर्तमान परिस्थिति में हमें सावधान रहना चाहिए। लेकिन शंका का करना पागलपन की पहचान है। नकारात्मकता होती है तो शंका ही शंका होती है। टेंशन में अंग न धड़कता हो तो भी धड़कने लगता है। जिसकी सोच नकारात्मक होती है वह उल्टा उल्टा लेकर चलता है। यह अशुभ परिणाम है। उस समय सोच सकारात्मक आ जाए तो जीवन में प्रसन्नता और ताजगी भर जाएगी।
कोयल का जन्म कौए के घोंसले में होता है लेकिन वह अपना माधुर्य नहीं छोड़ती : मुनिश्री ने कहा कि संगति का असर होता है। ऐसा सुना है व्यक्ति भीतर से बदलने को राजी नहीं है तब तक बाहर से यह दिखावा करता है। उन्होंने कहा कोयल का जन्म कौए के घोंसले में होता है। कोयल अपना घोंसला नहीं बनाती है और कौआ भी अपना बच्चा मानकर कोयल के बच्चे की खूब परवरिश, पालन पोषण करता है एवं बच्चा बड़ा होता है उड़ना सीखता है तो अपने उपादान और योग्यता से माधुर्य को सुरक्षित रखती है और कोयल मीठी बोलती है। इसी प्रकार चंदन के वन में नीम भी सुगंधित हो जाती है। सांप चंदन से लिपटे रहते हैं फिर भी वह विष उगलते हैं। इसी प्रकार मंथरा सांप की भांति जहर उगलने में माहिर थी लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो राम के चरित्र में मंथरा का होना सबसे जरूरी था। यदि मंथरा नहीं होती राम को वनवास नहीं होता राम वन नहीं गए होते तो राम, श्रीराम भी नहीं बन पाते। मंथरा और कैकई की भूमिका राम को वनवास भेजने में थी तब वह अयोध्यापति राम बन गए। महापुरुषों के लिए अवसर देने के लिए नियति देख कर ही व्यवस्था करती है और यदि मंथरा नहीं होती तो रामायण का परिदृश्य बदल गया होता।
संकलनकरता- अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी