परम पूज्य एलाचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने पर्वाधिराज दसलक्षण महापर्व के अवसर पर भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ भवन, कृष्णा नगर, मथुरा में तृतीय लक्षण “उत्तम आर्जव धर्म” की व्याख्या करते हुए कहा कि ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है| मायाचारी कभी सफलता नहीं पा सकता, आत्म-कल्याण के लिए सरल होना आवश्यक है| छल-कपट और मायाचारी के अभाव में ही आर्जव धर्म प्रकट होता है| यदि हमें अपना मनुष्य भव सार्थक करना है तो हमें मायाचारी छोड़कर सरलता अपनानी होगी| जिस प्रकार रीढ़ की हड्डी सीधी होने पर ही ध्यान में एकाग्रता आती है उसी प्रकार जीवन में चारित्र रुपी रीढ़ की हड्डी भी सीधी होनी चाहिए| यदि चारित्र ना हो अथवा वक्र हो, तब आर्जव धर्म हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता| जहाँ आर्जव धर्म है, वहां मायाचारी ठहर नहीं सकती| हमारे स्वभाव पर विभाव की काली छाया की परत जम जाती है जिसे सरलता के प्रकाश से ही दूर किया जा सकता है|
एलाचार्य श्री ने आगे कहा कि आर्जव स्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में छल-कपट मायाचार के भाव रूप शांति-स्वरुप जो पर्याय प्रकट होती है उसे आर्जव कहतें हैं| वैसे तो आत्मा आर्जव स्वभावी है पर अनादी से आत्मा में आर्जव के अभाव रूप माया कषाय रूप पर्याय ही प्रकट रूप से विद्यमान है| जिस प्रकार काँटा तात्कालिक दुःख तो देता ही है परन्तु बाद में भी दर्द देता है और लगातार पीड़ा प्रदान करता रहता है| उसी प्रकार माया भी यदि भीतर प्रवेश हो जाये तो अंदर ही अंदर घुटन पैदा करती है, चैन समाप्त हो जाता है| इस भव तथा पर भव में बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं| जिस प्रकार आकाश में छाये बादलों के कारण प्रकाश धरती पर नहीं आ पाता, उसी प्रकार माया के बादलों के बीच आर्जव का सूर्य छिपा रहता है|
आचार्य कहते हैं कि मायाचारी करने से पशुगति का बंध होता है| यह मायाचारी दुर्भाग्य की जननी है, अविद्या की जन्भूमि है, पुण्य नाशिनी है, निंदा को विस्तृत करने वाली है| अतः इस माया से सदैव दूर रहना चाहिए| अपनी जिंदगी में प्रेम को जन्म दो और परमात्मा के असीम आनंद में लीन हो जाओ| इसी भावना के साथ कि हे प्रभु! जब मेरे विचार पूर्ण ऋजु हो जायेंगे तो मैं ऋजु गति से सिद्धालय को सहज उपलब्ध हो जाऊंगा| एलाचार्य श्री ने आगे कहा कि जो मनस्वी पुरुष कुटिल भाव व मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र पालन करता है, उसके नियम से आर्जव धर्म होता है| विषय कषाय में उलझे हुए उपयोग को वहां से हटाकर योग की ओर ले आना और फिर योगों की व्यर्थ प्रवृत्ति को रोककर दृष्टि को अपने में स्थित करना, सीधे अपने से संपर्क करना, एक पर टिक जाना, प्रकम्पित नहीं होना, चंचल नहीं होना ही ऋजुता है|
एलाचार्य श्री ने आगे कहा कि व्यक्ति पूरे आगम ज्ञान का अध्येता भी क्यों ना हो, वह भी तब तब तक मुक्ति का अधिकारी नहीं बन सकता, अपनी आत्मा की अनुभूति में लीन नहीं हो सकता जब तक उसकी व्यग्रता नहीं मिटती| जब तक दृष्टि रागद्वेष से मुक्त होकर सरल नहीं होती| व्यग्रता दूर करने के लिए ध्यान की एकाग्रता उपाय है| ध्यान के माध्यम से हम मन-वचन-काय की चेष्टाओं में ऋजुता ला सकते हैं और इन योगों में जितनी-जितनी ऋजुता/सरलता आती जाएगी, उपयोग में भी उतनी-उतनी व्यग्रता/वक्रता मिटती जाएगी|