विचार

खोजो तो हर दुख में सुख और हर व्यक्ति में दुर्योधन ही नहीं अर्जुन भी छिपा है -डॉ. निर्मल जैन

मुँह में एक दॉंत टूट जाता है तो हमारी जीभ सतत वहीं जाती है। बाकी दॉंतों का अस्तित्व ही जैसे समाप्त हो जाता है। आखिर हमने अपनी ऐसी सोच क्योंकर बना रखी है कि  जो खो गया,  जो भी अप्रिय घटित हुआ है उसी का स्मरण करते रहते हैं। जो नहीं मिला उसी का ग़म मनाते रहते हैं और जो हमारे पास हैं उस पर ध्यान ही नहीं।

सुविधाजनक घर होने पर भी हमें पड़ोस का भव्य बंगला आकर्षित  करता रहता है। उस समय हमें  वे लोग क्यों ध्यान में नहीं आते जो फुटपाथ पर सोते है या जिनकी झुग्गी हर साल कभी बाढ़ कभी आग की भेंट चढ़ जाती हैं। शरीर में ज़रा सी अशक्तता आते ही हम असहाय सा अनुभव करने लगते हैं। लेकिन कभी उन लोगों के बारे में ख्याल नहीं आता  जो विभिन्न हस्पतालों में असाध्य रोगों के दर्द झेल रहे हैं।

हम उनके दुख में दुखी हों या न हों लेकिन हम यह सोच कर संतुष्ट  तो हो  सकते हैं कि हम कितनों से ही अधिक बेहतर हैं। हमारे पास हीरे और सोने से जड़ा चश्मा भले ही नहीं है। लेकिन हमारी दोनो ऑंखें तो हें जिनसे हम देख तो सकते हैं। हम उनसे तो कहीं बेहतर ही हैं जो जन्म से ही प्रकृति की अनुपम छटा निहारने, अपने परायों को देखने पहचानने से वंचित हैं। लेकिन हम हर सुख में भी दुःख  का कोना  ढूंढते  रहते है।  हर समय हम कुछ खो जाने के भय या भविष्य के प्रति आशंका में डूबते उतरते ही क्यों रहते  हैं? कभी अपने मे, वर्तमान में रहते क्यों नहीं है? जब कि हम सुखी तभी होते हैं जब हम अपने में होते हैं। जैसे ही हम अपने से बाहर निकलते हैं  दुखों से घिर जाते हैं।

जब कि वास्तविकता यह है कि सुख और दुख केवल हमारी स्वीकार्यता पर निर्भर करते हैं। परिस्थिति चाहे कितनी ही अनुकूल है हमारा मन अगर उसे स्वीकार नहीं करता है तो हमें सुख की अनुभूति हो ही नहीं सकती। इसके विपरीत यदि हर दुख, हर अभाव और यहॉं तक कि हर व्यक्ति और वस्तु के लिए जिस क्षण हमारे मन में स्वीकार्यता का भाव आ जाता है उसी क्षण उन दुखों और अभावों में भी हम अपने को सुखी अनुभव करेंगे।

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने सुख का रहस्य उद्घाटित करते हुए लिखा है कि -आप प्रसन्न हैं या नहीं, यह सोचने के लिए फुर्सत होना ही दुखी होने का रहस्य है।

संसार में न कोई पूर्ण सुखी और न हीं कोई पूरी तरह अच्छा आदमी मिलेगा। लेकिन हां अगर ढूंढेंगे तो हर आदमी में कई सुखकारक गुण और कहीं न कहीं किसी दुख का आभास अवश्य मिल जायेगा। हर दुःख किसी आने वाले सुख का कारण बन कर जाता है। हम अगर चाहते हैं कि हमारे मन में महाभारत न हो तो यह समझ लें कि दुख भी जीवन के सामान्य अनुक्रम का एक हिस्सा है। हमारी खोज ऐसी बने  कि हर व्यक्ति में दुर्योधन ही नहीं अर्जुन भी होता है।  आ चुके पल को स्वीकार कर उसका आनंद लेते रहें और जा रहे पल को विदा करते रहें। जीवन में फिर सुख ही सुख है।

सुख में हमें किञ्चित् दुःख का अनुभव हो सकता है, लेकिन दुःख में सुख का अनुभव होना असम्भव जैसा है। सबसे अधिक बुद्धिमानी है दुख को सुख में बदलने की कला जानना। महावीर का कहना है – दुख को जो सुख में बदल लेता है उसका सुख फिर दुख में नहीं बदल सकता। व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृद्धि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि से असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति सुखी और संपन्न होने पर भी दुखी और दरिद्र प्रतीत होता है।

अपने-आप में न सुख कुछ है न दुःख। सारा खेल मन के संस्कारों का है। हमारा स्वभाव आनंद है, पर हमारे मन को पोषण मिलता है सुख से। सुख हमेशा एक कामना है, एक मांग है कि- ‘मुझे सुखी होना है’। मुझे सुखी होना है। इस मांग से ही मुक्त हो जाना पूर्णानन्द है,पूर्ण सुख है।

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