जुगल किशोर जी मुख्तार ‘युगवीर’ की ‘मेरी भावना’ जब बच्चों की शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल हुई तो जैन समुदाय को ऐसा लगा जैसे मान लो कोई अलौकिक निधि प्राप्त हो गई। एक ज्वलंत प्रश्न यह है कि मेरी भावना शिक्षा सुधारों के चलते विद्धयालयों के पाठ्यक्र्म में तो शामिल कर दी गयी लेकिन श्री युगवीरजी की मेरी भावना को हमने अपने जीवन-क्रम में, अपनी भावनाओं, अपने आचरण में कितना शामिल किया?
मेरी भावना हम तो रोज पढ़ते हैं अब देश के बच्चे भी पढ़ेंगे, एक खुश-खबर। किसी रचना की सार्थकता तब ही होती है जब उसके अक्षर हमारे ह्रदयपटल पर अंकित होकर हमारे क्रिया-कलापों मे उतरने लगें। श्री युगवीर जी ने धर्म और आचरण के प्रति जिन भावनाओं को व्यक्त किया है उन्हे रोज पढ़ लेने अथवा किसी पाठ्यक्रम में जोड़े जाने मात्र से ही उनको या उनकी कृति को पूरी प्रतिष्ठा नहीं दी जा सकती। यह तब होगा जब हम उन भावनाओं को अपने व्यवहार में उतारें। आइए अपने को इक कसौटी पर कस कर देखें कि क्या हम मेरी भावना का एक शब्द मात्र भी अनुपालन करते हैं?
‘रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करूं’। ‘समता भाव रखूं मैं जग में नहीं किसी से वैर करूं’। कभी बैठकर सोचें कि जब हम किसी से मिलते हैं तो क्या जैसे हमारे मन में उसके प्रति विचार हैं उसी के अनुरूप मिलते हैं? क्या हमारा यह सरल और समता-भाव पल-पल हर चेहरे को, चेहरे की उपयोगिता को आंक कर, देखकर बदलता नहीं जाता है? अगर यह भी सच है तो कहाँ गया वो समता भाव, सरल-सत्य व्यवहार?
‘अहंकार का भाव ना रखूं’। हम रोज ‘धर्म’? करते हैं, प्रभु से बहुत कुछ मांगने के लिए कुछ दान देते हैं। हम को तो सबसे बड़ा अहंकार इसी बात का हो जाता है।अहंकार वो दुर्गुण है जिसके आते ही बाकी सारे गुण तिरोहित हो जाते है।
‘गुणी जनों को देख ह्रदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे’। क्या वास्तव में वर्षों से सर्वोच्च गुणों के धारक श्री जिनदेव के भजन-पूजन से हममें किंचित गुण-ग्राहकता आ गयी है? हम युगवीर जी के भावनानुसार गुणी जनों सम्मान करते हैं? अथवा हमारे लिए वही गुणी है जो हमारी स्वार्थ पूर्ति में सहायक होता है। बार-बार यह लाइनें पढ़ने के बाद भी जब हमें किसी की विद्वता पसंद नहीं क्योंकि वो हमारा समर्थक नहीं, किसी की लोकप्रियता हमें रास इसलिए नहीं आती कि उसके सामने हम अपने को बौना महसूस करने लगते हैं, क्योंकि वो हमें पसंद नहीं इसलिए उसका लेखन-वाचन भी हमें रुचिकर नहीं लगता। ऐसे में मेरी भावना को मुख्य धारा में शामिल करने पर हम खुश होने के अधिकारी भी नहीं हैं।
‘हो कर सुख में मगन ना फूलूँ दुख में कभी ना घबराऊं’। अभी हम सब पिछले 4 महीने से कोरोना की त्रासदी से गुजर रहे हैं। क्या इस आपद काल में भी हम उतने ही खुश रहे जितने सामान्य काल में थे? क्या हमें इन दिनों कोई असुविधा नहीं हुई, क्या किसी अभाव का अनुभव करते हुए आकुल नहीं हुए? कहीं कहीं तो धर्मात्मा संक्रमित भी हुए और शासनादेश कि अवज्ञा कर मंदिर खोलने पर कानून कि गिरफ्त में भी आ गए। इतना उतावलापन क्यों, क्या अब तक इतना भी धर्म और पुन्य संचित नहीं किया जो लॉकडाउन की अवधि में सुरक्षा कवच बनता। तो फिर दुख में कभी न घबराऊँ रोज दोहरने की ज़रूरत क्या?
हम तो जरा से संकट में ही बिखर गए। तो श्री युगवीर जी ने यह पंक्तियां कि ‘वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुख संकट सहा करें’ यूं ही लिख दी थीं। लिखते समय उन्हे यह खयाल भी नहीं आया होगा कि हम उनके हृदय के उद्गारों को केवल बाहरी क्रिया तक ही सीमित रखेंगे, हृदय में कोई स्थान नहीं मिलेगा। धर्म को आत्मसात करने के बजाय उन्माद की विषय-वस्तु बना लेंगे। अगर यही स्थिति है तो हमारा खुश होना भी दिखावटी है।
‘धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय सभी का किया करे’। अब राजा नहीं पाये जाते । लेकिन धार्मिक या सामाजिक संस्था के किसी पद पर बैठते हैं तो हमारा वह पद भी राजा से कुछ कम नहीं होता। तब ऐसे पद पर बैठकर क्या हम अपने निहित स्वार्थों को एक तरफ रख कर सबके साथ समान व्यवहार, समान मान-सम्मान और न्याय देते हैं? क्या सभी के विचारों को अपने निर्णय में स्थान देते हैं? क्या संस्था-हित पर हमारा निज-हित हावी नहीं होता? ऐसा होता है तो हमारा मेरी भावना के प्रसंग को लेकर खुश होना व्यर्थ है।
‘बनकर सब युगवीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करें’। याद करें कि क्या कभी हमने अपनी कामनाओं कि पूर्ति हेतु भगवान के अलावा अपने देश अपनी मातृ-भूमि का जयघोष किया। कभी किसी राष्ट्रीय पर्व पर या अपने ही किसी आयोजन में अपने ध्वज के साथ तिरंगा भी फहराया? भ्रष्टाचार और आतंक कि कमर तोड़ने वाले आर्थिक सुधारों के प्रशंसक बने? शायद नहीं। तो हम व्यर्थ में ही खैरात में मिली मलाई चेहरे पर लगाकर गौशाला मालिक होने के वृथा दंभ में फूल रहे हैं ।