दशधर्म पर्व का प्रथम अंग क्षमा। भूल होना मानव स्वभाव है। लेकिन क्षमा करना दिव्यता है, दैवीय गुण है। हिंसा और आतंक की आग से सुलगते मानव को केवल क्षमा की शीतलता से ही राहत मिल सकती है। मात्र क्षमा-भाव रखने से दिन-प्रतिदिन के पारिवारिक झगड़े, पड़ोस के विवाद, रोड-रेज जैसी घटनाओं से बचा जा सकता है। जाति, रंग, छुआछूत आदि भेदों में उलझकर मनुष्य-मनुष्य के बीच उपज रहे हिंसक संघर्ष से मुक्ति के लिए हमें क्षमा की ही शरण में जाना होगा क्योंकि इन सबका जनक क्रोध है और क्रोध को नष्ट करने वाली युक्ति क्षमा ही है।
क्षमा कर देना न केवल हमारी उदारता, शांतिप्रियता को दर्शाता है अपितु यह हमारे मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर भी अनुकूल प्रभाव छोड़ता है। जिन लोगों से हम घृणा करते हैं उन्हें उस घृणा से खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन घृणा के भाव और उनसे उत्पन्न क्रोध, आवेश, आक्रोश, प्रतिशोध इन सभी की नकारात्मक भावना हमारे लिए ही नुकसानदायक है। यह हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़कर हमें तनाव की स्थिति में ला देती है। यह हमारे रक्तचाप को उद्वेलित कर हृदयाघात का कारण बनती है और हम पर अवश्य ही प्रतिकूल प्रभाव छोड़ती है। सही मायने में विचार करें तो हम पाते हैं कि क्षमा कर हम किसी के प्रति अनुग्रह नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपने आप को चिंता और तनावमुक्त कर रहे हैं।
महावीर की क्षमा का संदेश है- विपरीत परिस्थितियों में दूसरों के द्वारा पहुंचाए हुए कष्टों को चित्त-वृत्ति में किंचित मात्र भी दंड की अभिलाषा रखे बिना सह लेना। अपकारक पर बदले की भावना से अपकृत्य करना दुर्जन-प्रवृत्ति है लेकिन क्षमा धारण करने वाला तो अपकारी पर भी उपकार कर उसे वश में करता है। कहा भी गया है, क्षमा बड़ों की शोभा है।
क्षमा का आभा-मंडल इतना विराट है कि अंतर में क्षमा धारण करते ही बाकी सभी धर्म का स्वत: ही समावेश हो जाता है। मन में निर्मलता लाकर शेष धर्म को सरलता से आत्मसात करना क्षमा धर्म से प्रारंभ होता है। क्षमा धर्म की स्थापना कर हम अपने मान को विगलित करते हुए समस्त जीवों से अपनी भूलों के लिए क्षमा मांगते हैं। ऐसा कर हम हृदय में संचित क्षमा-भाव को वाणी एवं जीवन-शैली में अभिव्यक्त कर संबंधित व्यक्ति के हृदयस्थ क्षोभ को भी दूर कर देते हैं।
क्षमा तेजस्वी का तेज है, क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी का सत्य है। क्षमा उसी का अलंकार है जो मनोवीर है, आत्मवीर है। जो क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करता, कटु-वचनों का उत्तर भी मीठी मुस्कान से देता है। विषम परिस्थितियों के कितने ही झंझावात आएं लेकिन दृढ़ चट्टान की तरह शांत-भाव से स्थिर रहता है।
क्षमता से हृदय पर छाये समस्त कषाय-कलुष धुल जाते हैं। हृदय स्वच्छ दर्पण की तरह निर्मल हो जाता है। परिणामस्वरूप अंत:करण में अतीत की कोई भी कटु-स्मृति शेष न रहने पर सोच सकारात्मक ही बनी रहती है। क्षमा में जो महत्ता है, जो औदार्य है वह क्रोध और प्रतिकार में कहां। प्रतिहिंसा हिंसा पर ही आघात कर सकती है, उदारता पर नहीं। क्षमा करना चाहे जितना भी कठिन हो, लेकिन अशांति के पहाड़ को ढोने से कहीं ज्यादा आसान होता है।
जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन 9810568232