हाल ही में हमने जय-जवान जय-किसान नारा देने वाले भारत के यशस्वी कर्मठ प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री की जन्म-जयंती मनाई। तत्समय अन्न संकट को दूर करने के लिए उन्ही का उद्घोष था – देश हित और स्वास्थ्य हित में सप्ताह में एक समय सभी लोग उपवास रखें।
अनाज की बरबादी तो असहनीय है। मैंने किसान के घर जन्म लिया मुझे मालूम है कितनी सर्दी-गर्मी-बरसात झेलने के बाद अनाज के दाने खलिहान से घर आते हैं। उतना ही लो थाली में व्यर्थ ना जाए नाली में। अगर थाली और नाली की परिभाषा को वृहद रुप से देखा, समझा जाए तो यह हर क्षेत्र में कारगर एक बड़ा उपयोगी सूत्र है। “थाली” का तात्पर्य हमारे बार्डरोव, बैंक के लाकर, घर का स्टोर रूम। “व्यर्थ” से तात्पर्य उनमें रखे वस्त्र और आभूषण का अतिरेक। जो समय समय पर डिजाइन और फैशन बदलने से आउटडेटेड होते रहते हैं। पैंट की मोरी का साइज़ बदल जाता है सूट और साड़ी का नया डिजाइन आ जाता है। कीमती साड़ियाँ तह के मोड से कट सकती हैं।
महिलाएं सदैव ही आभूषण प्रिय रही हैं। कभी सोना, कभी चांदी के जेवर का फैशन। किसी की पसंद गनमेटल के जेवर। फिर आया डायमंड और अब डायमंड की जगह प्लेटिनम। पल-पल परिवर्तन के युग में अगर हमने अपनी तिजोरी रूपी थाली में बहुत अधिक भर लिया तो समय और फैशन बदलते ही नए के सामने पुराना व्यर्थ। उसे देख-सोच कर अफसोस होता रहेगा कि नाहक ही साधनों से कितना समझौता करके इन्हे खरीदने के लिए अतिरिक्त धन कमाया और अब यह सब व्यर्थ हो गए।
वर्तमान में धर्म करने की दो शारीरिक क्रियाओं पर विशेष बल है। अभिषेक और पूजन। मैं एक ऐसे पंचकल्याणक में जलाभिषेक करने का भागीदार हूँ कि वह जीवनदायिनी पवित्र-जल श्रद्धालुओं के जूतों के नीचे से होता हुआ पहाड़ी की पगडंडियों में इधर-उधर पशु-पक्षियों के मल के संपर्क में आता हुआ बहता देखा। अब यह सब “व्यर्थ” ही तो हुआ। धार्मिक जगत में भी चरितार्थ हुआ न -कि उतना ही लो थाली में जो व्यर्थ न जाए नाली में। वो तो पहुँच से दूर उच्च स्तरीय आयोजन था। लेकिन हम तो उतने ही जल का प्रयोग कर सकते हैं जितने की ज़रूरत हो, ताकि बचने वाला यह पवित्र जीवन-जल गमलों में सीवर की खाद-मिश्रित खेत कि मिट्टी में न विसर्जित हो।
सीखने वालों को उंगली पकड़ कर चलना सिखाया जाता है, जो चलने में असुविधा महसूस करते हैं, वे वैशाखी या छड़ी का सहारा लेते हैं। पूजन में शारीरिक क्रिया द्वारा अर्पित सामग्री भी इसी तरह हमारा एक अवलंबन है। परंपरा के अनुसार यह सामग्री माली को दी जाती रही है। ताज़ा शंका उठी कि माली द्वारा बाज़ार में बेचने पर उससे अभक्ष्य भोज्य-पदार्थ बनते हैं। फिर इस सामाग्री का क्या सदोपयोग हो? यह तो सुनिश्चित है कि सामाग्री मात्रा में इतनी अधिक होती है कि जिसे भी देंगे वो बाज़ार की शरण में ही जाएगा। सामग्री के अनुरूप पशु-पक्षियों की तलाश सब के लिए व्यावहारिक रूप से दैनिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बन सकती।
जैन विचारधारा में आराधना, भक्ति भाव-प्रधान है। अगर हमारी भावनाएं शारीरिक क्रियाओं से ही जागृत होने की आदी ही हो गई हैं तो हमारे भाव अगर श्रद्धा के शीर्ष पर है तो भर-भर के थाल और मुट्ठियों के स्थान पर चुटकी भर सामग्री भी पुण्य संचित कर सकती है। यह कोई इष्टदेव का भोग तो नहीं कि कम अर्पित की तो उनकी क्षुधा बाकी रह जाएगी।
इस रीति से दिन भर में उतनी ही सामग्री उपयोग में आएगी जितनी कि हमारे माली के परिवार की रसोई में काम आ सके। अक्षत और पुष्प उसके लिए भात और खीर का काम कर दें। दीप-नैवेद्य मैं थोड़ा सा मीठा डालकर वह मिठाई बनाकर परिवार को खिला दे और जो मेवा के रूप में हम चढ़ाते हैं शाम को उसके बच्चे उसे खाकर स्वास्थ्य लाभ करें।
भाव के स्थान पर प्रक्रियाओं की जटिलता से नई पीढ़ी धर्म से विमुख होती जा रही है। यथार्थपरक और सरलीकारण होने से शायद रुचि लेने लगे। परिवर्तन संसार का नियम है। जो समय के साथ नहीं बदलते, समय उन्हे बदल देता है। बाकी सोच अपनी अपनी ।
लेखक- डॉ. निर्मल जैन (न्यायाधीश) 9810568232