पर्युषण पर्व का नवां अंग, उत्तम आकिंचनधर्म। आकिंचन और परिग्रह परस्पर पूरक हैं। अपरिग्रह व्रत है, अकिंचन आत्मा का धर्म है। अकिंचन का तात्पर्य परिग्रह-शून्यता मात्र नहीं है। अपितु परिग्रह-शून्यता के मनोभावों कि सहज स्वीकृति भी है। प्रचिलित अर्थों में अपरिग्रह -पदार्थ पर स्वामित्व, आसक्ति की आकांक्षा और उनका संग्रह न करना है। किन्तु संग्रह का अभाव मात्र ही अपरिग्रह नहीं है। यदि पदार्थ के अभाव को अपरिग्रह समझा जाये तब निर्धन सबसे बड़ा अपरिग्रही होगा। अपरिग्रह के लिए पदार्थ की उपलब्धता के साथ उसमें विसर्जन या अनासक्ति का होना अनिवार्य है। सम्पदा के अतिरिक्त क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का आंतरिक परिग्रह भी होता है।
परिग्रह –परि (दूसरा) +आग्रह। जिसको दूसरों से आग्रह है, आशा है वो परिग्रही है। अपरिग्रही होना किसी पर आश्रित न होकर आत्म-निर्भर होना है। जब तक हमारे यह भाव बने रहेंगे कि हमें किसी के शारीरिक या मानसिक आर्थिक सहारे की ज़रूरत है, हम अपने को निर्बल ही समझते रहेंगे। हम, हम हो ही नहीं सकते। (श्री भाषजी इंदोर से चर्चा-निष्कर्ष)
आज के युग में अपरिग्रह व्रत का जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्व है। महावीर के अनुसार -अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं, अपितु वस्तु में निहित ममत्व, आसक्ति का त्याग अपरिग्रह है। जब तक ब्रह्मांड के पदार्थों के प्रति लालसा, तृष्णा, ममता, कामना बनी रहती है तब तक बाह्य त्याग वस्तुतः त्याग नहीं कहा जा सकता। क्योंकि परिस्थितिवश विवश होकर किसी वस्तु का त्याग किया जा सकता है। किन्तु उसके प्रति रहे हुए ममत्व का त्याग नहीं हो पाता। ममत्व छोड़े बिना अपरिग्रह व्रत अपूर्ण ही रहता है। असमानता का उन्मूलन करना है अमीरों और गरीबों के बीच की गहरी खाई को कम करना है पाटना है, वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना है तो वस्तु के त्याग से पूर्व वस्तु में निहित ममत्व के त्याग को अपनाना होगा। यही अपरिग्रह धर्म है।
धन की परिग्रह-वृत्ति काम, क्रोध, मान और लोभ को प्रोत्साहन देने वाली है। परिग्रह सभी सद्गुणों को खा जाने वाला कीड़ा है। पाप-वृत्तियों की जड़ है अर्थात् जीव परिग्रही बनकर हिंसा, चोरी आदि में लिप्त रहकर असत्याचरण करता है। प्रशासन और समाज में फैला भ्रष्टाचार लोगों की संचयी प्रवृत्ति का ही नतीज़ा है। आज की सारी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनेतिक समस्यायें केवल असीमित परिग्रह के कारण ही हैं। सीमा-रहित आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए संग्रह की प्रवृत्ति के कारण नैतिक तथा जीवन-मूल्यों का निरन्तर पतन हो रहा है। हाल में हुई कई बहुचर्चित आत्महत्याएँ इन आर्थिक, शारीरिक तृष्णाओं की पूर्ति का ही परिणाम हैं। उपभोक्तावादी सोच की बनावटी आधुनिकता के इस विकृत रूप ने हमारे समाज को कहां पहुंचा दिया है ?
तीर्थकर महावीर का दर्शन, बहुजन-हिताय और बहुजन-सुखाय तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वह सर्वजन-हिताय और सर्वजन-सुखाय से बढ़कर सर्वजीव-हिताय और सर्वजीव-सुखाय तक है। उनके आचार-दर्शन पर आधारित अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था संसार की सभी अव्यवस्थाओं का समाधान करने में सक्षम है। अपरिग्रहवाद को केवल अध्यात्मिक या आर्थिक दृष्टिकोंण से ही देखा जाना भूल होगी। अपरिग्रहवाद का राजनीतिक पहलू भी है और सामाजिक पहलू भी है। अपरिग्रहवादी के लिए हर क्षेत्र में विषमता असह है। अपरिग्रहवादी न तो व्यक्ति को दास बनाना चाहता है, न व्यक्ति की स्वतंत्रता को इतना अमर्यादित देखना चाहता है कि व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़पे, शोषण करे। हर किसी की स्वतंत्रता वहीं तक सीमित हो कि दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े।
वर्तमान में अर्थशास्त्र की अवधारणा यह है कि धन के बिना आदमी जी नहीं सकता। अत: धन केन्द्र-बिन्दु बन गया है। मनुष्य एक तरफ किनारे पड़ गया है। जबकि अपरिग्रह व्रत का मूल है -व्यक्ति वो ही या उतना ही पदार्थ ग्रहण करे जितने पदार्थ के ग्रहण से मन मोह, ममत्व, रागद्वेश आदि के विकारों से कलुषित न हो। अपने लिए कोई कितना कमाएगा? एक मकान और एक गाड़ी के साथ साथ खाने-पीने का सारा सामान इकठ्ठा हो जाए तब भी हम बैंक की शोभा बढ़ाने के लिए, प्रदर्शन के लिए जो कमाते हैं वह लिप्सा ही संग्रह की श्रेणी में आती है। संग्रह की इस लिप्सा को हम जितना बढ़ाते हैं उतनी ही हमारे लिए दुख का कारण बनती है। अपरिग्रह व्रत ही न्यूनतम पराधीनता और अधिकतम आनन्द का मार्ग है।
हम इस बात को महत्व देने लगे हैं कि हमारे पास संग्रह कितना है। जबकि महत्वपूर्ण यह है कि हमने जीवन का आनन्द कितना लिया। सुख और आनन्द में अन्तर है। सुख भौतिक है। आनन्द हमारे अन्दर है। अपरिग्रह का मतलब अभाव में जीना नहीं है। अपरिग्रह का अर्थ विकास के पथ पर पिछड़ जाना भी नहीं है। न यह निर्धनता है, न कृपणता। अपरिग्रह तो स्वयं को प्रकृति से जोड़े रखने का आश्वासन है। अपरिग्रह प्रकृति का संदेशवाहक है कि यहां जो कुछ भी है किसी अकेले एक का नहीं, सबके लिए है। अपरिग्रह में व्यक्ति अपनी आवश्यकतायें के अनुरूप साधन तो जुटाकर रखता है पर धीरे-धीरे अपनी आवश्यकतायें समझता और सीमित करता भी चलता है। अपरिग्रह के विकास से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा का विकास मानवता का विकास अर्थात सर्वत्र शांति। 9810568232