लेखक – डॉ. निर्मल जैन (ret.जज)
जब मानवीय मूल्य मिथ्याभिमान द्वारा धूल-धूसरित कर दिये गए थे। दुर्बल-उत्पीड़न चरम पर था। जनमानस अंधविश्वासों के अंधकूप में डूब रहा था। एक वर्ग-विशेष की संपदा बन कर धर्म पुस्तकों में सिमट गया था। धन-लिप्सा और भौतिक भोग-विलास के समक्ष त्याग और अपरिग्रह सूत्र बौने पड़ गए थे। इसी समय (तीर्थंकर) महावीर के आगमन से क्षितिज पर अहिंसा, सत्य, त्याग, अपरिग्रह और जीव, दया,करुणा की किरणें प्रस्फुटित हुईं। महावीर ने समाज का सारा अन्धेरा तिरोहित कर नैतिकता और संस्कृति के सूर्य की रक्षा की।
उन्होंने अपने आत्मबल के बूते अहिंसा का अस्त्र। लेकर क्रूर और हिंसा समर्थक शक्तिशाली तन्त्र की सभी पाशविक वृत्तियों तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और सामाजिक कुरीतियों से पीड़ित जनमानस को मुक्ति दिलाई। वे जानते थे कि हिंसा और हथियारों का प्रयोग तो वे करते हैं जिन्हेंत भौतिक युद्ध लड़ कर किसी को पराजित करना हो। महावीर का वैचारिक युद्ध तो हिंसक-विकृतियों, गरीबी, वर्ण-भेद, छुआ-छूत, अज्ञान के अंधेरे और भोग में डूबी सभ्येता के नशे जैसे अवगुणों और धर्म तथा समाज को अज्ञानियों से छुटकारा दिलाने के लिए था।
उनकी मान्यता थी कि मुक्त होने के लिए युद्ध नहीं, त्याग जरूरी है। महावीर ने अपना सब कुछ त्यागा और जनमानस से कहा -अपना भय त्याग कर अपने स्वरूप को पहचानो। भय किससे? सबकी आत्मा समान हैं। महावीर ने कहा इधर-उधर न भटक कर सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह एवं शुद्धिकरण सिद्धांतों पर चलना ही मोक्ष या मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। इसी अनूठी और सरल विचार-धारा को (जिसे जैनधर्म से जाना जाने लगा) सबसे अलग लोकोपकारी रूप दिया है।
महावीर अब नहीं हैं। महावीर अपने पीछे एक बदली हुई सोच वाली दुनिया छोड़ गए हैं। जो विवादों को युद्ध की बजाय संवाद से सुलझाने की पक्षधर है। एक ऐसी दुनिया जिसमें असहायों का उत्पीड़न वर्जित है। जहां हर साधारण आदमी की आवाज सत्ता के शिखर की आवाज से अधिक ऊंची है। जहां संपूर्ण विचारधारा कर्म और भाव पर आधारित है। आडंबर और कर्मकांड को लेशमात्र भी स्थान नहीं। अपने आचरण द्वारा स्थापित इन्ही बदलाव के लिए महावीर अनुकरणीय हुए, पूजनीय हुए।
महावीर का एक सुंदर संदेश है -मार्ग मोक्ष का उपाय है और उसका फल निर्वाण या मोक्ष है। उन्होंने कहा जो मार्ग पर चलेगा उसे मार्ग फल अवश्य मिलेगा। केवल मार्ग पर बैठे रहने से, धूप-दीप करने से या जय-जयकार करने से मार्ग फल की प्राप्ति बिल्कुल नहीं हो सकती है। वर्तमान विज्ञान भी कहता है कुछ पाने के लिए कुछ करना ही पड़ेगा।
महावीर की याद में हम आज बहुत से आयोजन, योगदान आयोजित करते हैं। लेकिन लगता ऐसा है कि इन आयोजन, योगदानों की चर्चा में उनका बुनियादी वो काम जिसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ समर्पित कर दिया कहीं पीछे छूटता जा रहा है। महावीर के गगनभेदी जयकारे तो लगते हैं। लेकिन उनके सत्य्, अहिंसा, अपरिग्रह सूत्र का प्रयोग अब मात्र शब्दों के रूप में इतने चलताऊ ढंग से होने लगा है कि उनसे महावीर की विराट छवि जन-मानस के सामने उभरती ही नहीं।
आस्था और श्रद्धा प्रदर्शन की बांदी सी हो गयी लगती हैं। धर्म फिर जन-साधारण से दूर शक्ति-शालियों के नियन्त्रण में हो गया है। नाम भर बदला है लेकिन धार्मिक क्रिया-प्रक्रिया वही पुराने धर्म के व्यापारियों द्वारा धन के तराजू पर तुल कर बिकने लगी है। भक्ति के नये-नये रस में डूबे आयाम स्थापित हो गये हैं। परिग्रह में अपरिग्रह और शोर में शान्ति की खोज हो रही है। संवाद की जगह विवाद ने ले ली है ।
पुराने तीर्थ जर्जर हो रहे हैं, हमारे हाथ से निकल रहे हैं। फिर भी न जाने नये देवालयों, तीर्थों,मठों की संख्या बढ़ाने, निर्वाण को भूल निर्माण के प्रति हम सब का कौन सा और कैसा आकर्षण है? देव और देवालय की अपेक्षा भक्तों, दर्शनार्थियों विशेषकर नई पीढ़ी की उपस्थिति कम होती जा रही है। वर्तमान परिपेक्ष में धर्मशीर्ष और जैन-नेतृत्व के सामने सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है। इसके सम्यक निस्तारण पर ही हमारा वर्तमान और भविष्य निर्भर करता है।
क्या हम महावीर के अवतरण काल के समय विद्यमान विकृतियों के फिर से शिकार तो नहीं होते जा रहे हैं? क्या कहीं हम उस महावीर को जो सबके पूजनीय रहे, उनके आचरणों को भूल उनके चरण-स्पर्श तक ही सीमित तो नहीं हो गये? क्या उनके जन-हितकारी सूत्र सिर्फ बैनर, नारों तक ही सिमटा दिये गये।