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अधिकार पाना है तो कर्तव्य पालन भी जरूरी हो जाता है- डॉ निर्मल जैन

जीवन में दुखों के कारण अनगिनत है पर बड़े कारणों में दो मूल कारण हैं पहला है कर्तव्य पालन से चूक जाना। दूसरा है अधिकारों की मांग को लेकर डटे रहना । हम अगर इन दोनों को में तालमेल बैठालें तो हमारी बहुत सारी समस्याएं दूर हो सकती हैं। अधिकार और कर्तव्य के बीच आशा और निराशा जय पराजय के भय से मुक्ति की रखा खींची हुई है । अधिकार और चित्र एक ही चित्र के दो पहलू हैं कर्तव्य हमें अपनी नैतिक जिम्मेदारी का अहसास कराते हैं तो अधिकार हमारे जागरूक होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

यदि हम जागरूक हैं तो हमें जिम्मेदार भी बनना है। अगर हम परिवार समाज और देश में शांति और समृद्धि की आकांक्षा रखते हैं तो हमें पहले अपने कर्तव्य को समझना होगा और उसका पालन करना होगा। अधिकार तो हमें स्वयं मिल जाएंगे। कर्तव्य का पालन करें तो अधिकारों को खोजने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन कर्तव्यों की उपेक्षा करके अधिकारों को पाने का प्रयास न्यायपूर्ण नहीं होगा। जो अपने अधिकार का सदुपयोग करना जानता है वह कर्तव्य में भी चूक नहीं करता ऐसा व्यक्ति क्यों पराजित करना संभव है। जिसमें भी कर्तव्य का पालन किया जो अधिकारों की सीमा में रहना सीख लिया उसके जीवन से भला सुख कौन छीन सकता है। कर्तव्य का आधार व्यक्ति की नैतिक चेतना है। इन कर्तव्यों का पालन स्वयं किया जाता है। कर्तव्य का पालन न करने पर ना तो बाध्य किया जा सकता है और ना ही दंडित। यह लेकिन यह तालमेल की एक बड़ी कमी है।

कर्तव्य का पालन न करके हम सबसे पहले अपनी आत्मा के सामने पराजित होते हैं यह पराजय हमारे आत्मसम्मान के लिए बड़ी बाधा है तो आत्म सम्मान भी हम तभी पाते हैं जब अंदर से विजयी महसूस करते हैं। हालांकि जय और पराज्य कुछ नहीं केवल मन के भाव हैं और यह भाव ज्यादा समय तक टिक नहीं सकता। लेकिन हमें अपने कार्य में जीत महसूस होता है तो उसे हिसाब से हम काम को आगे बढढ़ाते हैं और यह जीत तब महसूस होती है जब अपने कर्तव्य को निभाते हुए चलते हैं। ऋग्वेद में यह संकल्प अनेक बार दोहराया गया है “अहमिन्द्रों न पराजिग्ये” यानी मैं शक्ति का केंद्र हूं और जीवन पर्यंत मेरी पराजय नहीं हो सकती। यदि मन की इस अपरिमित शक्ति को भूलकर हमने उसे दुर्बल बना लिया है तो सब कुछ होते हुए भी हम अपने को संतुष्ट और पराजित ही अनुभव करेंगे। इसके विपरीत यदि मन को शक्ति संपन्न बनाकर रखेंगे तो तो जीवन में पराजय और असफलता का अनुभव कभी ना होगा हमारे मनीषी चिरंतन काल से मन को संयमित रखने की बात कहते आ रहे हैं। क्योंकि संयमित मन ही विकल्पों से मुक्त होकर कुछ करने का दिल संकल्प ले सकता है जब संकल्प होगा तो निश्चय ही साधन हीनता की स्थिति में भी कोई ना कोई साधन खोज ही लिया जाएगा दृढ़ मन की शक्ति हमसे कुछ भी करवा सकती है अतीत का अवलोकन करें तो पाएंगे कि संसार केवल तलवार वालों का यानी साजन और सत्य संपन्न लोगों का ही नहीं हुआ करता बल्कि संकल्प और बालों का भी हुआ करता है अल्प साधना वाले महाराणा प्रताप ने अपने मन में जल संकल्प करके मुगल सम्राट अकबर से युद्ध किया शिवाजी ने बहुत थोड़ी सी लेकर ही गए गौरव जी पर दांत खट्टे कर दिए दुनिया हमें कैसे दिखती है इससे क्या फर्क पड़ता है महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने को कैसे देखते हैं।

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